भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास जिसका मन दुःखों में बेचैन होता और जिसे सुखों में अधीरपूर्णलालसा नहीं रहती, जो राग, भय और क्रोध से मुक्त हो गया है, वह स्थित-बुद्धि मुनि कहलाता है। यह है आत्म-स्वामित्व, जिसमें इच्छाओं और वासनाओं को जीतने पर जोर दिया गया है।[1] 57.यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तप्राप्य शुभाशुभम् । जिसे किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं है, जो प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न होता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो गई है। फूल खिलते हैं और फिर वे मुरझाते हैं। इनमें से पहले की स्तुति करने और दूसरे की निन्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी हमारे सम्मुख आए, उसे हमें आवेश, दुःख या विद्रोह के बिना ग्रहण करना चाहिए। 58.यदा संहरते चायं कूर्माेअंगनीव सर्वशः । जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में अपनी इन्द्रियों को सब ओर से वैसे ही खींच लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को (अपने खोल के अन्दर) खींच लेता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ .ल्सूक्रेशयस से तुलना कीजिएः ’’धर्म इस बात में नहीं है कि वस्त्रों से ढके पत्थर की ओर अविराम मुंह करके रहा जाए, न इसमें कि सब मन्दिरों की वेदियों के पास जाया जाए, न इसमें कि पृथ्वी पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया जाए; न इसमें कि देवताओं के निवास के सम्मुख हाथ ऊपर उठाए जाएं; न इसमें कि मन्दिरों में पशुओं का रक्त बहाया जाए; न इसमें कि शपथों पर शपथें खाई जाएं; अपितु इसमें है कि सबको शान्तिमयी आत्मा के साथ देखा जाए।’’- डि रेरम नाट्युरा।
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज