भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 101

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

  
56.दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥

जिसका मन दुःखों में बेचैन होता और जिसे सुखों में अधीरपूर्णलालसा नहीं रहती, जो राग, भय और क्रोध से मुक्त हो गया है, वह स्थित-बुद्धि मुनि कहलाता है। यह है आत्म-स्वामित्व, जिसमें इच्छाओं और वासनाओं को जीतने पर जोर दिया गया है।[1]

57.यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तप्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

जिसे किसी भी वस्तु के प्रति स्नेह नहीं है, जो प्राप्त होने वाले शुभ और अशुभ को पाकर न प्रसन्न होता है और न अप्रसन्न होता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो गई है। फूल खिलते हैं और फिर वे मुरझाते हैं। इनमें से पहले की स्तुति करने और दूसरे की निन्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो कुछ भी हमारे सम्मुख आए, उसे हमें आवेश, दुःख या विद्रोह के बिना ग्रहण करना चाहिए।

58.यदा संहरते चायं कूर्माेअंगनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठा॥

जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में अपनी इन्द्रियों को सब ओर से वैसे ही खींच लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को (अपने खोल के अन्दर) खींच लेता है, उसकी बुद्धि (ज्ञान में) दृढ़ता से स्थित हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. .ल्सूक्रेशयस से तुलना कीजिएः ’’धर्म इस बात में नहीं है कि वस्त्रों से ढके पत्थर की ओर अविराम मुंह करके रहा जाए, न इसमें कि सब मन्दिरों की वेदियों के पास जाया जाए, न इसमें कि पृथ्वी पर लेटकर साष्टांग प्रणाम किया जाए; न इसमें कि देवताओं के निवास के सम्मुख हाथ ऊपर उठाए जाएं; न इसमें कि मन्दिरों में पशुओं का रक्त बहाया जाए; न इसमें कि शपथों पर शपथें खाई जाएं; अपितु इसमें है कि सबको शान्तिमयी आत्मा के साथ देखा जाए।’’- डि रेरम नाट्युरा।

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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