भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 79

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ॥48॥[1]

स्वभावतः प्राप्त कर्म सदोष होने पर भी छोड़ना नहीं चाहिए। जिस प्रकार अग्नि के साथ धुएं का संयोग है, उसी प्रकार सब कर्म भी दोषों से आवृत्त है।

असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥49॥[2]

जिसका अन्तस्थ आत्मा, वह कुछ भी करे, आसक्ति रहित करता है, जिसने मन को भली-भांति जीत लिया है और जो कामनाओं से मुक्त हो गया है, वह इस प्रकार के संन्यास से परम सिद्धि प्राप्त करता है, जो कि कर्म-त्याग का लक्ष्य है।

मुमुक्षु को जन्म, जीवन, मृत्यु और विलोप के सब दृष्यों के मूल में निरपेक्ष और सनातन परमात्मा का मनन करना चाहिये। जिस प्रकार बच्चे को दिन रात्रि के चक्र में जीवन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दिखलाई पड़ता है, ठीक उसी प्रकार सृष्टि और संहार भी प्रत्यक्षता और अप्रत्यक्षता मात्र है। सृष्टि और संहार ब्रह्म का केवल जागना और सोना, दिन और रात्रि है। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने पर मनुष्य जगत् की परम एकता की अनुभूति करता है। इसी परम एकता का ध्यान और अनुभूति योग को चरम लक्ष्य है।

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन: ॥14॥[3]

जो चित्त को अन्यत्र कहीं रखे बिना नित्य मेरा ही स्मरण करता है, जो नित्य युक्त रहता है, वह मुझे सरलता से पाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 18-48
  2. दोहा नं0 18-49
  3. दोहा नं0 8-14

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