भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 78

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

उसे स्वार्थ-कामना की पूर्ति के लिये नहीं, वरन् सामाजिक जीवन को चलाने के लिये करना चाहिये; सामाजिक सहयोग वास्तव में ईश्वर की उपासना है- यह शिक्षा समाज-संगठन की प्रत्येक प्रणाली पर लागू होती है, चाहे वह अत्यन्त प्राचीन हो या अत्यन्त अर्वाचीन। निस्वार्थ सहयोग के आग्रह और इस तर्क को कि मन के ऐसे भाव से सब कर्म समान और उदात्त हो जाते हैं, किसी विशेष समाज-व्यवस्था का समर्थक समझने की गलती नहीं करनी चाहिए।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: ।
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥45॥[1]

स्वयं अपने कर्तव्य में रत रहकर पुरुष संसिद्धि प्राप्त करता है। अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है, सो तू मुझसे सुन।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ॥46॥[2]

अपने कर्तव्य-कर्मों को करना ही उसकी पूजा है, जिससे सब प्राणियों का आविर्भाव हुआ है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, और इस प्रकार की पूजा से मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है।

श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥47॥[3]

अपना कर्तव्य असम्मानित होने पर भी दूसरे के कर्म से-भले ही वह अच्छी तरह किया हुआ क्यों न हो-अधिक श्रेष्ठ है। जो अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करता है, उसे पाप नहीं लगता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 18-45
  2. दोहा नं0 18-46
  3. दोहा नं0 18-47

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