भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 77

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

गीता आत्मसंयम और सर्वव्यापी एकता की साधना के उच्चतम आदर्शों का प्रतिपादन करती है। वह दार्शनिकों के मनोविनोद-मात्र की वस्तु नहीं है, वरन् एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें स्त्री-पुरुषों से सच्चा अनुरोध किया गया है कि वे उसकी शिक्षा के अनुसार अपने जीवन को ढालें और ऐसा अविलम्ब करें। गीता की शिक्षा छोटों के लिये भी है और बड़ों के लिये भी; कर्मों में अत्यन्त व्यस्त लोगों के लिये भी है और जीवन-संघर्ष से निवृत्त लोगों के लिये भी। निस्संदेह गीता सब कालों के लिये है; परन्तु अन्य सर्वकालीन धर्मग्रन्थों के समान ही, उसके शब्दों को उस देश और काल की सामाजिक व्यवस्था की पीठ-भूमिका के आधार पर पढ़ना चाहिए, जिसमें वह लिखी गई थी। वह आधुनिक आंदोलनों में प्रमाण के रूप में उद्धत की जाने के लिये नहीं लिखी गई थी, और यदि वह इस उद्देश्य में पूरी नहीं उतरती तो उसकी आलोचना करना न्यायपूर्ण या बुद्धिसंगत न होगा। उसमें जिन तत्वों का प्रतिपादन किया गया है वे मनुष्य की समानता के आधुनिक आन्दोलनों में प्रमाण की भांति सहायता पहुंचाने के लिए यथेष्ट संबल हैं। निम्नलिखित श्लोकों में सब कर्मों की समानता और उदारता का जो आग्रह है उसे जन्मजात उच्च-नीच भेद स्थापित रखने का निमित्त नहीं समझनाा चाहिये। जो उससे प्रकट होता है। गीता में जाति-प्रथा और जन्मानुसार कर्म को यथावत् स्वीकार कर लिया गया है और उसी के आधार पर सारी शिक्षा का विस्तार हुआ है। इस आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि सब कालों के लिये उन प्रथाओं का समर्थन किया गया है। गीता जिस पर जोर देती है वह यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी समाज में नियत स्थिति की प्रतिष्ठा और कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। वह बताती है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न वर्गों के लिये नियत किये हुए कर्म वस्तुतः उच्च और निम्न नहीं होते, क्योंकि समाज को कायम रखने के लिये सभी की समान आवश्यकता है। उसके अनुसार, वे सब कर्म उपेक्षा या भ्रम के बिना और निःस्वार्थ सामाजिक सहयोग की भावना से किये जाने चाहिये। इस सामाजिक सहयोग की अपेक्षा चाहे जाति प्रथा के अनुसार की जाय या उसके बदले में स्वीकार की गई अथवा भविष्य में संभव किसी दूसरी सामाजिक व्यवस्था के आधार पर, प्रत्येक स्थिति में गीता को यह शिक्षा उस पर समान रूप से लागू होती है। कोई काम ऐसा नहीं है जिसके बारे में मनुष्य कह सके- ‘यह उदात्त और श्रेष्ठ है, सब दोषों से रहित है; इसलिये मैं अपने नियत कर्म की अपेक्षा इसे ही करना पसंद करूंगा।’ इस संसार के प्रत्येक कार्य में कुछ-न-कुछ दोष अवश्य दिखलाई पड़ता है; परन्तु एक साधन है-निःस्वार्थ भाव-जिससे सब कुछ शुद्ध होकर पवित्र और उदात्त बन जाता है। कर्म किया जाना चाहिये, और भली भांति किया जाना चाहिये;

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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