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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
आनुवंशिक संस्कारनान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति । जो पुरुष जान गया है कि भौतिक प्रकृति के गुणों के सिवा कोई कर्ता नहीं है, और जिसने उसे देख लिया है, जो इन गुणों से परे है, उसने मेरे भाव को प्राप्त कर लिया है। न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: । पृथ्वी पर या देवताओं के मध्य स्वर्ग में ऐसा कोई भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से मुक्त हो। स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा । तू मोह वश होने के कारण जो नहीं करना चाहता, वह भी अपनी प्रकृति के प्रभाव से विवश होकर करेगा। ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देश्ऽर्जुन तिष्ठति । ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में वास करता है और माया के बल से उन्हें यंत्र पर चढ़ी हुई पुतलियों की तरह घुमाता रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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