भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यानआरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योग साधन के इच्छुक मुनि के लिए कर्तव्यपालन साधन बताया गया है; योगारूढ़ हो जाने पर उसके लिये शम (समत्व) को साधन कहा गया है। यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । जब मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में या इन्द्रियों के हेतु कर्म करने में आसक्ति का अनुभव नहीं करता और उसका मन इस प्रकार के कामों के सब संकल्पों से मुक्त हो जाता है तब वह योगारूढ़ कहलाता है। उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । मनुष्य आत्मा से आत्मा की उन्नति करे और अन्तर्निवासी आत्मा को दुर्बल न होने दे। वस्तुतः आत्मा ही आत्मा का एकमात्र बन्धु है, परन्तु आत्मा ही अपना शत्रु भी है। बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: । जिसने आत्मनिग्रह द्वारा अपने मन पर विजय प्राप्त कर ली है, उसका मन उसका बन्धु है; परन्तु जिसने अपने मन पर शासन करना नहीं सीखा, वह अपना ही घोर शत्रु बन जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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