भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यानयोऽन्त: सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य: । जिसका सुख उसके अन्दर ही है, जिसे अपने हृदय से ही आनन्द की उपलब्धि होती है, जिसका अन्तःकरण ज्योतिर्मय है, वह योगी परम मुक्ति पाता है और ब्रह्म में विलीन हो जाता है। कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । उन यतियों को परम मुक्ति-ब्रह्मनिर्वाण-सुलभ है, जिन्होंने मन को वश में किया है, काम और क्रोध को जीत लिया है और जो अपने को पहचानते हैं। यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायण: । इन्द्रियों, मन और बुद्धि को सदा वश में रखकर तथा इच्छा, भय और क्रोध से रहित होकर जो मुनि मोक्ष के प्रयत्न में निमग्न रहता है वह मुक्त ही है। तथापि, सब कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से करने के अभ्यास के पूर्व मन का यह समत्व प्राप्त करने का प्रयत्न असामयिक होगा। यदि मनुष्य साधारण कार्यों में, अभ्यास के द्वारा, निःस्वार्थ भाव को स्वयंस्फूर्त बना ले तो वह सफलता या असफलता, आनन्द या उद्वेग की परवाह किये बिना ही मानसिक समत्व की अधिक कठिन साधना के योग्य बन जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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