भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 42

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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मनोनिग्रह का अभ्यास

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: ।
काम:क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥21॥[1]

आत्मा का नाश करने वाले नरक के ये तीन द्वार हैं- काम, क्रोध और लोभ, इसलिये इन तीनों का त्याग का करना चाहिए।

एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर: ।
आचरत्यात्मन: श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥22॥[2]

इन तीनों नरक-द्वारों से दूर रहने वाला मनुष्य आत्मा के कल्याण का आचरण करता है और परमगति को पाता है।

सच्चा सुख उससे प्राप्त नहीं होता, जो पहले अमृत के समान मालूम होता है, परन्तु अन्त में विष बन जाता है। आत्मसंयम से सच्चा सुख प्राप्त होता है, यद्यपि प्रारम्भ में वह कठिन और अप्रिय होता है।

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छति ॥36॥
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥37॥[3]

तीन प्रकार के सुखों में से वह सुख, जिसके उत्तरोत्तर अभ्यास से मनुष्य प्रसन्न रहता है और जिससे दुःख का अन्त होता है, जो आरम्भ में विष के समान दुःस्वादु लगता है, परन्तु अन्त में अमृत के समान होता है, जो स्पष्ट आत्मबोध से उत्पन्न होता है, सात्विक कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 16-21
  2. दोहा नं0 16-22
  3. दोहा नं0 18-36,37

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