भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 36

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

अब संसार का त्याग करके संन्यासी बनने के विरुद्ध एक प्रबल तर्क। आप संन्यास ग्रहण करके और अलग खड़े होकर यह यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि दूसरे लोग समाज का साधारण काम-काज चलाते रहें। सामाजिक जीवन तो जारी रहना ही है; और आप जो कुछ करते हैं, उसका दूसरे लोग अनुसरण करेंगे, यह अपेक्षा भी रखनी चाहिये। गीता का नीतिशास्त्र मुख्यतः सामाजिक सामाजिक है। उसके अनुसार, राजर्षि जनक के लिए जो अच्छा था वह सभी के लिए पर्याप्त मात्र में अच्छा है।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय: ।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥20॥[1]

जनकादि ने कर्म से ही परम सिद्धि प्राप्त की। लोक-संग्रह की दृष्टि से भी तुझे कर्म करना उचित है।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥21॥[2]

जो-जो आचरण उत्तम पुरुष करते हैं उसका अनुसरण दूसरे लोग करते हैं। वे जिसे प्रमाण बनाते हैं, उसका लोग अनुसरण करते हैं।

संसार के लिए ज्ञानी और अज्ञानी सबके सहयोग की आवश्यकता है। ज्ञानियों की पंक्तियाँ बराबर बढ़ती रहनी चाहिएं परन्तु, इसी बीच, भूलना नहीं चाहिए कि सामाजिक जीवन में अज्ञानी के सहयोग की उपेक्षा नहीं की जा सकती इसलिए उनके मन को जान-बूझकर डांवाडोल नहीं करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 3-20
  2. दोहा नं0 3-21

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