भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 34

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते ॥6॥[1]

जो मनुष्य कर्म करने वाली इन्द्रियों को रोकता है, परन्तु मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह अपने-आपको धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते ॥7॥[2]

परन्तु जो इन्द्रियों को मन के द्वारा नियम में रखता हुआ, संगरहित होकर, कर्मेंन्द्रियों का उपयोग करता है और इस प्रकार कर्मयोग का अभ्यास करता है, वह श्रेष्ठ पुरुष है।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण: ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मण: ॥8॥[3]

इसलिये तू उचित कर्म कर। कर्म न करने से कर्म करना ही अधिक अच्छा है। कर्म के बिना जीवन का निर्वाह भी संभव नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 3-6
  2. दोहा नं0 3-7
  3. दोहा नं0 3-8

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