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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
विहित कर्मसमस्त कर्मों के प्रति तटस्थता का भाव विकसित करने में ही ज्ञान प्रकट होता है। ज्ञान ‘जानकारी’ या ‘बुद्धिमत्ता’ से पूरी तरह व्यक्त नहीं होता। उसके लिये पर्यवेक्षित सत्य के अनुसार अपने आप में पूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता है। ऐसा परिवर्तन शेष संसार के साथ अपनी और ईश्वर के साथ समस्त संसार की एकता की उत्तरोत्तर अनुभूति का परिणाम तथा उसी अनुभूति की ओर ले जाने वाला होता है। स्वार्थ के हित से मुक्त हो जाने पर कर्म-मुक्त और पापरहित हो जाता है। निम्नलिखित श्लोकों में यह स्पष्टतः बताया गया हैः यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को भस्म कर देती है। न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । इस संसार में ज्ञान के समान शुद्ध करने वाला दूसरा कुछ नहीं है। जो निःस्वार्थ कर्म में अपना अभ्यास पूर्ण कर लेता है, वह यथासमय उस ज्ञान को अपने आप में प्राप्त करता है। योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । जो मनुष्य त्याग-भाव से कर्म करता है, जिसने ज्ञान के द्वारा संशय को छिन्न कर डाला है और जो सदैव अपने आत्मा के प्रति जागृत रहता है, उसे कर्म नहीं बांधते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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