भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 20

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

इच्छद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥27॥[1]

इच्छा और द्वेष की परस्पर विरोधी शक्तियों के धोखे में पड़कर सारा जगत् मोहग्रस्त रहता है।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥16॥[2]

प्राणीमात्र में दो तत्व या पुरुष हैं-एक परिवर्तनशील या क्षर, दूसरा अपरिवर्तनशील या अक्षर। प्राणियों का समस्त शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर है।

उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत: ।
यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वर: ॥17॥[3]

उत्तम तत्व अथवा पुरुष इससे भिन्न है। वह परमात्मा कहलाता है। वह अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में व्याप्त होकर उनका धारण करता है।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
श्रतोऽस्मिलोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥18॥[4]

मैं क्षर और अक्षर दोनों से ऊपर हूँ; इसलिए लोक और वेद में ‘परम् आत्मा’ अथवा ‘पुरुषोत्तम्’ नाम से प्रख्यात हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 7-27
  2. दोहा नं0 15-16
  3. दोहा नं0 15-17
  4. दोहा नं0 15-18

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