भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 14

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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कर्म

यदि मैं संयम करूं या शान्त होने का प्रयत्न करूं या शान्त होने का प्रयत्न करूं तो आगे के लिये यह प्रयत्न अधिक सरल और स्वयं-स्फूर्त हो जाएगा। यह क्रम-विकास जारी रहता है। हिन्दू दर्शन का मत है कि मृत्यु के समय तक मनुष्य के विचार, कार्य और प्रायश्चित से जो भी चरित्र बन जाता है वह आत्मा से संलग्न रहता है और आत्मा की दूसरी यात्रा उसी के आधार पर प्रारम्भ होती है।

कर्म भाग्यवाद नहीं है। वह वैयक्तिक प्रयत्न को व्यर्थ करने वाला कोई निरंकुश और बाह्य साधन नहीं है। इसके विपरीत, कर्म-सिद्धान्त मनुष्य के विकास को पूर्णतः उसके ही प्रयत्नों पर छोड़ देती है और स्वयं मृत्यु भी प्रयत्न के क्रम-विकास में हस्तक्षेप नहीं करती। हम सातवें और आठवें अध्याय में कर्म के इस पहलू पर पुनः विचार करेंगे।

यह सुविज्ञात है कि माता-पिता की शारीरिक विशेषतायें और मानसिक लक्षण बच्चों में भी उतर आते हैं। यह परम्परा से शरीरों का रूप-विन्यास होता है, परन्तु आत्मा का नहीं। आत्मा के माता-पिता नहीं होते, उसका अस्तित्व स्वयं होता है। कोई भी आत्मा अपने योग्य किसी भी शरीर में निवास कर सकता है। जिस तरह इन्जीनियर नागरिक अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उनमें चुनाव कर लें और उनमें रह सकें, उसी तरह शरीर आत्मा का निवास-स्थान है। रहने वाला अपने मकान को सुधार या बिगाड़ सकता है। उस मकान में आने वाला दूसरा व्यक्ति भी ऐसा ही करता है, क्योंकि यह उसकी निजी परिस्थिति के अनुकूल पड़ता है। पिता अपने पैदा होने वाले बच्चे का शरीर बिगाड़ सकता है; परन्तु उस पुत्र के रूप में कौन सा आत्मा आने वाला है, यह उस आत्मा के कर्मजन्य विकास की स्थिति पर निर्भर करता है। बच्चे के पैदा होने के समय मालूम होता है कि उसने अपने माता-पिता की शारीरिक और मानसिक विशेषतायें अनुहृत की है; परन्तु वास्तव में वह अपने ही पिछले जीवन के संचित गुणावगुण अनुहृत करता है और उन्हीं के कारण वह वैसे माता-पिता का बच्चा बनता है। औरस पुत्र केवल शारीरिक रूप में ओरस पुत्र होता है। आत्मा की दृष्टि से औरस पुत्र भी केवल गोद में लिया हुआ पुत्र ही हैं अनुहरण का नियम कर्म-नियम को समाप्त नहीं करता और न उसके कार्य में हस्तक्षेप ही करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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