भगवतरसिक

भगवतरसिक 'टट्टी सम्प्रदाय' के मुख्याचार्यों में श्रीस्वामी ललितकिशोरी जी के शिष्य श्री स्वामी ललितमोहनीदास जी के कृपापात्र शिष्य थे। इनकी उपासना श्री बिहारी जी की थी। ये स्वामी हरिदास जी के सम्प्रदाय के संत थे।

भगवान गणेश का वरदान

कहा जाता है कि भगवतरसिक जी पहले भगवान श्रीगणेश के उपासक थे। अपनी अनन्‍य निष्‍ठा और एकान्‍त उपासना से इन्‍होंने भगवान श्रीगणेश जी को प्रत्‍यक्ष कर लिया था। श्रीगणेश ने ही पहले इन्‍हें श्रीकृष्ण भगवान की अनन्‍य प्रेमलक्षणा भक्ति "सखीभाव" से करने का उपदेश दिया और उसकी सिद्धि का वरदान भी दिया। यह बात इनके निम्‍नलिखित पद से भी प्रकट होती है-

"हमैं बर गुरु गनेस ह्वै दीनों।
जल भरि सँड फिराय सीस पर संसकार सुभ कीनों।।
दै प्रसाद परतीति बढ़ाई, दुख दारिद सब छीनों।
अपने पांच रूप दरसाए, सुख उपजाइ नवीनों।।
ब्‍यापक पूज्‍य सखी आचारज अति ऐश्‍वर्य प्रबीनों।
लोक-बेद-भय-भर्म भगाए, ताप सिराए तीनों।।
आनँदघन कौ पद दरसायौ, दंपति-रति-रस भीनों।
भगवतरसिक लड़ैती लालन ललित भुजन भरि लीनों।।

श्रीकृष्ण की भक्ति

'टट्टी सम्‍प्रदाय' के अष्‍टाचार्यों में सबसे अन्तिम श्रीललित-मोहिनीदास जी के गोलोक सिधारने पर भक्त महानुभावों के अत्‍यन्‍त आग्रह करने पर भी श्रीभगवतरसिक जी ने गद्दी का अधिकार नहीं लिया और ये जन्‍मभर निर्लिप्‍त भाव से श्रीजी की सेवा में लगे रहे। यथार्थ तो यह है कि ये श्रीकृष्ण भक्ति में लीन एक प्रेमयोगी थे। श्रीकृष्‍ण भक्ति के 'सखीभाव संप्रदाय' के भक्त-प्रेमी-भावुक महाकवियों में इनका आसन श्रेष्‍ठ है। इस प्रेमयोगी कवि का हृदय प्रेमरस से सराबोर था। इन्‍होंने स्‍वयं लिखा है-

"भगवतरसिक रसिक की बातैं रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना।"

ग्रन्थ रचना

भगवतरसिक जी के रचे हुए पांच ग्रन्‍थ बतलाये जाते हैं-

  1. 'अनन्यनिश्चयात्मक
  2. श्रीनित्यबिहारीयुगलध्यान
  3. अनन्यरसिकाभरण
  4. निश्चयात्मक ग्रन्थ
  5. निर्बोधमनरंजन

इनकी रचनाओं का एक संग्रह ग्रन्‍थ 'भगवतरसिक की वाणी' के नाम से वर्तमान महंत ने प्रकाशित किया है।

उपासना पद्धति

श्रीभगवतरसिक जी अपनी उपासना पद्धति के सम्‍बन्‍ध में लिखते हैं-
"कुंजन ते उठि प्रात गात जमुना मैं धोवै।
निधि बन करि दंडवत, बिहारी कौ मुख जोवै।।
करै भावना बैठि स्‍वच्‍छ थल रहित उपाधा।
घर-घर लेय प्रसाद, लगै जब भोजन साधा।।
संग करै भगवत रसिक, कर करवा, गूदरि गरें।
बृंदाबन बिहरत फिरै, जुगल रूप नैनन भरें।।"


श्रीभगवतरसिक जी के मतानुसार संत का लक्षण इस प्रकार है-

"इतने गुन जामें सो संत।
श्रीभागवत मध्‍य जस गावत श्रीमुख कमलाकंत।।
हरि कौ भजन, साधु की सेवा, सर्ब भूत पर दाया।
हिंसा, लोभ, दंभ, छल त्‍यागै, बिष सम देखै माया।।
सहनशील, आसय उदार अति, धीरज सहित बिबेकी।
सत्‍य बचन सबकों सुखदायक, गहि अनन्‍य ब्रत एकी।
इंद्रीजित, अभिमान न जाके, करे जगत कों पावन।
'भगवतरसिक' तासु की संगति तीनहुँ ताप नसावन।।"


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • [लेखक- साहित्याचार्य पण्डित श्रीलोकनाथजी द्विवेदी, सिलाकारी, 'साहित्यरत्न']

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः