भक्त बछल बसुदेवकुमार3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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श्रीकृष्ण का अक्रूर-गृह-गमन
रागपरज


कुसल भाषि सब जादौकुल की, प्रभु के कहे संदेस।
भयौ परम संतोष मिले सौ, मिटे सकल अंदेस।।
कुंती कह्यौ स्याम सौ कहियौ, हम है सरन तुम्हारी।
कुरुपति अंध जु मम पुत्रनि कौ, देत सदा दुख भारी।।
पुनि कुरुपति सौ मिलि सुफलकसुत, कह्यौ बहुत समुझाइ।
चारि दिवस के जीवन ऊपर, तुम कत करत अन्याइ।।
अन्याई कौ बास नरक मैं, यह जानत सब कोइ।
गर्व प्रहारी है त्रिभुवनपति, जो कछु करै सु होइ।।
कुरुपति कह्यौ मैंहुँ जानत हौ, पै मेरौ न बसाइ।
नमस्कार मेरौ जदुपति सौ, कहियौ परि कै पाइ।।
सुफलकसुत सब कथा तहाँ की, आइ स्याम सौ भाषी।
'सूरदास' प्रभु सुनि सुनि तासौ, हृदय आपनै राखी।।4160।।
।। इति श्री सूरसागर दशम स्कंध पूर्वार्ध समाप्त।।

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