भक्त नरसी मेहता 3

भक्त नरसी मेहता


इस पृथ्वी लोग में भक्ति रूपी एक महान पदार्थ है वह ब्रह्मलोक में नहीं है। जिन्होंने पुण्यों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया, वे अन्त में चौरासी के चक्कर में गिर पड़े। हरि के भक्त तो मुक्ति न माँग कर बार-बार जन्म माँगते हैं, जिससे वे नित्य सेवा, नित्य कीर्तन, नित्य उत्सव में नन्द कुमार को निरखते रहें। इस पृथ्वी में जिन्होंने भारत खण्ड में जन्म लेकर गोविन्द के गुणों का गान किया, उनके माता-पिता को धन्य है और उन्होंने अपना जीवन सफल कर लिया। वृन्दावन धन्य है, वे लीलाएँ धन्य हैं, वे व्रजवासी धन्य हैं, जिनके आँगन में अष्ट महासिद्धियाँ खड़ी हैं और मुक्ति जिनकी दासी है। उस रस का स्वाद भगवान श्री शंकर जानते हैं अथवा योगी श्री शुकदेव जानते हैं। कुछ व्रज की गोपियाँ जानती हैं, नरसी उस रस को स्वयं भोग कर कह रहा है-

भूतल भक्ति पदारथ मोटुं, ब्रह्मलोक मां नांही रे।
पुण्य करी अमरातुरी पाम्या, अन्ते चौरासी मांही रे।।टेक।।
हरिना जन तो मुक्ति न मागे, मागे जन्मोजन्म अवतार रे।
नित्य सेवा नित्य कीर्तन ओच्छव, निरखवा नन्द कुमार रे।।1।।
भरतखंड भूतलमां जनमी जेणे गोविन्दना गुण गाया रे।
धन धन रे एनां मात पिताने, सफल करी ऐने काया रे।।2।।
धन वृन्दावन धन ए लीला, धन ए ब्रजना वासी रे।
अष्ट महासिद्धि आँगणिये रे ऊमी, मुक्ति छे एमनी दासी रे।।3।।
ए रसनो स्वाद शंकर जाणे, के जाणे शुक जोगी रे।
कोई एक जाण व्रजनी गोपी, भणे ‘नरसैंयो’ भोगी रे।।4।।


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