भक्त नरसी मेहता 2

भक्त नरसी मेहता


तब से वे एकदम विरक्त-से हो गये और लोगों को भगवद्भक्ति का उपदेश देने लगे। वे कहा करते - ‘भक्ति तथा प्राणिमात्र के साथ विशुद्ध प्रेम करने से सबको मुक्ति मिल सकती है।’

कहते हैं कि एक बार जूनागढ़ के राव-माण्डळीक ने उन्हें बुलाकर कहा - ‘यदि तुम सच्चे भक्त हो तो मन्दिर में जाकर मूर्ति के गले में फूलों का हार पहनाओ और फिर भगवान की मूर्ति से प्रार्थना को कि वे स्वयं तुम्हारे पास आकर वह माला तुम्हारे गले में डाल दें; अन्यथा तुम्हें प्राण दण्ड मिलेगा।’ नरसीजी ने रात भर मन्दिर में बैठकर भगवान का गुणगान किया। दूसरे दिन सबेरे सबके सामने मूर्ति ने अपने स्थान से उठकर नरसीजी को माला पहना दी। नरसी की भक्ति का प्रकाश सर्वत्र फैल गया।

सदा भगवत्प्रेम में निमग्न रहने वाले भक्त नरसी मेहता अपने भक्ति पदों के द्वारा भगवान को सदा रिझाते रहे। उनके पद भक्तों के लिये कण्ठहार रूप में प्रसिद्ध ही हैं। उनका निम्नलिखित पद तो बहुत ही प्रसिद्ध है। प्रेमी भक्त बड़ा विभोर हो कर इसका गान करते हैं -

वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड पराई जाणे रे।
परदुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे।।
सकळ लोक माँ सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे।
वाच काछ मन निश्चळ राखे, धन-धन जननी तेनी रे।।
समदृष्टि ने तृष्णा-त्यागी, परस्त्री जेने मात रे।
जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।।
मोह माया व्यापे नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जेना मनमाँ रे।
रामनाम सुं ताळी लागी, सकळ तीरथ तेना तनमाँ रे।।
वणलोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे।
भणे नरसैंयो तेनुं दरसन करताँ, कुळ एकोतेर तार्या रे।।

एक दूसरे पद में भक्त और भक्ति की महिमा में वे कहते हैं-


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