भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम
पद्मावती ने कहा- ‘यह आप क्या कह रहे हैं? आप कविता का शेष चरण लिखने के लिये रास्ते से ही लौट आये थे, कविता की पूर्ति करने के बाद आप अभी-अभी तो स्नान-पूजन-भोजन करके लेटे थे। इतनी देन में मैं आपको नहाये हुए-से आते कैसे देख रहीं हूँ।’ जयदेव जी ने जाकर देखा, पलँग पर कोई नहीं लेट रहा है। वे समझ गये कि आज अवश्य ही यह भक्तवत्सल की कृपा हुई है। फिर कहा- ‘अच्दा पद्मा! लाओ तो देखें, कविता की पूर्ति कैसे हुई है।’
पद्मावती ग्रन्थ ले आयी। जयदेव जी ने देखकर मन-ही-मन कहा- ‘यही तो मेरे मन में था, पर मैं संकोचवश लिख नहीं रहा था।’ फिर वे दोनों हाथ उठाकर रोते-रोते पुकारकर कहने लगे- ‘हे कृष्ण! नन्दनन्दन, हे राधावल्लभ, हे व्रजांगनाधव, हे गोकुलरत्न, करुणासिन्धु, हे गोपाल! हे प्राणप्रिय! आज किस अपराध से इस किंकर को त्यागकर आपने केवल पद्मा का मनोरथ पूर्ण किया।’ इतना कहकर जयदेव जी पद्मावती की पत्तल से श्रीहरि का प्रसाद उठाकर खाने लगे। पद्मावती ने कितनी ही बार रोककर कहा- ‘नाथ! आप मेरा उच्छिष्ट क्यों खा रहे हैं?’ परंतु प्रभुप्रसाद के लोभी भक्त जयदेव ने उसकी एक भी नहीं सुनी।
इस घटना के बाद उन्होंने ‘गीतगोविन्द’ को शीघ्र ही समाप्त कर दिया। तदनन्तर वे उसी को गाते मस्त हुए घूमा करते। वे गाते-गाते जहाँ कहीं जाते, वहीं भक्त का कोमलकान्त गीत सुनने के लिये श्रीनन्दनन्दन छिपे हुए उनके पीछे-पीछे रहते। धन्य प्रभु! अन्तकाल में श्रीजयदेव जी अपनी पतिपरायणा पत्नी पद्मावती और भक्त पराशर, निरन्जन आदि को साथ लेकर वृन्दावन चले गये तथा वहाँ भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीला देख-देखकर आनन्द लूटते रहे। कहते हैं कि वृन्दावन में ही वे देह त्यागकर नित्यनिकेतन गोलोक पधार गये। किसी-किसी का कहना है कि जयदेव जी ने अपने ग्राम में शरीर छोड़ा था और उनके घर के पास ही उनका समाधि-मन्दिर बनाया गया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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