भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम 6

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम

सत्संग हो रहा था। बातों-ही-बातों में पद्मावती ने सती-धर्म की महिमा बतलाते हुए कहा कि ‘जो स्त्री स्वामी के मर जाने पर उसके शव के साथ जलकर सती होती है, वह तो नीची श्रेणी की ही सती है। उच्च श्रेणी की सती तो पति के मरण का सचामार सुनते ही प्राण त्याग देती है।’ रानी को यह बात नहीं जँची। उसने समझा, पद्मावती अपने सतीत्व का गौरव बढ़ाने के लिये ऐसा कह रही है। मन में ईर्ष्या जाग उठी, रानी परीक्षा करने का निश्चय करके बिना ही कुछ कहे महल को लौट गयी। एक समय राजा के साथ जयदेव जी कहीं बाहर गये थे। रानी सुअवसर समझकर दम्भ से विषादयुक्त चेहरा बनाकर पद्मावती के पास गयी और कपट-रुदन करते-करते कहा कि ‘पण्डित जी को वन में सिंह खा गया।’ उसका इतना कहना था कि पद्मावती ‘श्रीकृष्ण-कृष्ण’ कहकर धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ी! रानी ने चैंककर देखा तो पद्मावती अचेतन मालूम हुई, परीक्षा करने पर पता लगा कि पद्मावती के प्राणपखेरू शरीर से उड़ गये हैं। रानी के होश उड़ गये। उसे अपने दुःसाहसपूर्ण कुकृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुआ। वह सोचने लगी, ‘अब मैं महाराज को कैसे मुँह दिखाऊँगी। जब पतिदेव अपने पूज्य गुरु जयदेव जी की धर्मशीला पत्नी की मृत्यु का कारण मुझको समझेंगे, तब उन्हें कितना कष्ट होगा! जयदेव जी को भी कितना सन्ताप होगा! हा दुर्दैव!’

इतने में ही जयदेव जी आ पहुँचे। राजा के पास भी मृत्यु-संवाद जा पहुँचा था, वह भी वहीं आ गया। राजा के दुःख का पार नहीं रहा। रानी तो जीते ही मरे के समान हो गयी। जयदेव जी ने रानी की सखियों से सारा हाल जानकर कहा-‘रानी माँ से कह दो, घबराएँ नहीं। मेरी मृत्यु के संवाद से पद्मावती के प्राण निकल गये तो अब मेरे जीवित यहाँ आ जाने पर उन प्राणों को वापस भी आना पड़ेगा।’ जयदेव जी ने मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की। कीर्तन आरम्भ हो गया। जयदेव जी मस्त होकर गाने लगे। धीरे-धीरे पद्मावती के शरीर में प्राणों का संचार हो आया। देखते-ही-देखते वह उठ बैठी और हरि-ध्वनि करने लगी। रानी आनन्द की अधिकता से रो पड़ी। उसने कलंक-भंजन श्रीकृष्ण को धन्यवाद दिया और भविष्य में कभी ऐसा दुःसाहस न करने की प्रतिज्ञा कर ली। सब ओर आनन्द छा गया। जयदेव जी की भक्ति और पद्मावती के पतिव्रत का सुयश चारों ओर फैल गया।

कुछ समय गौड़ में रहने के बाद पद्मावती और श्रीराधामाधव जी के विग्रहों को लेकर राजा की अनुमति से जयदेव जी अपने गाँव को लौट आये। यहाँ उनका जीवन श्रीकृष्ण के प्रेम में एकदम डूब गया। उसी प्रेमरस में डूबकर इन्होंने मधुर ‘गीतगोविन्द’ की रचना की।


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