भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम 5

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम


राजा ने विस्मित होकर बड़े ही कौतूहल से आग्रहपूर्वक सारा हाल पूछा। जयदेव जी को अब सच्ची घटना सुनानी पड़ी। दयालु हृदय जयदेव जी ने कहा-‘राजन्! मैं बहुत ही अभागा हूँ, जिसके कारण उन बेचारों के प्राण गये। मैंने धन को बुरा समझकर छोड़ दिया था, पुनः राजा के आग्रह से उसे ग्रहण किया। इसी से वन में उन बेचारों की बुद्धि लोभवश दूषित हो गयी और उन्होंने धन छीनने के लिये मुझे लूला-लँगड़ा करके कुएँ में डाल दिया। इस प्रकार उन्होंने धन का और धन-ग्रहण का प्रत्यक्ष दोष सिद्ध कर मेरे साथ मित्रता का ही बर्ताव किया। मैं उनके उपकार से दब गया, इसी से उन्हें आपके पास से धन दिलवाया। अधिक धन दिलवाने में मेरा एक हेतु यह भी था, यदि उनकी धन की कामना पूर्ण हो जायगी तो वे डाकूपन के निर्दय काम को छोड़ देंगे। अवश्य ही मेरे हाथ-पैर किसी पूर्वकृत कर्म के फल से ही कटे थे, वे तो केवल लोभवश निमित्त बने थे। आज अपने ही कारण से उनकी इस प्रकार अप्राकृतिक मृत्यु का समाचार सुनकर मुझे रोना आ रहा है। यदि उनका दोष हो तो भगवान उन्हें क्षमा करें। कितना आश्चर्य है कि मेरे दोष न देखकर भगवान ने दया करके मेरे हाथ-पैर पुनः पूर्ववत बना दिये हैं। राजन! ऐसे मेरे प्यारे श्रीकृष्ण को जो नहीं भजता, उसके समान अभागा और कौन होगा।’

भक्तप्रवर श्रीजयदेव जी की वाणी सुनकर राजा चकित हो उनके चरणों में लोट गया। भक्तहृदय की महत्ता का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त कर वह उनसे अत्यन्त प्रभावित होकर भक्त बन गया! जयदेव जी की पत्नी पद्मावती भी छाया की भाँति सब प्रकार से स्वामी का अनुवर्तन करने वाली थी। भगवान के प्रति उसका प्रेम भी असीम था। पतिव्रत-धर्म का महत्त्व वह भलीभाँति जानती थी। जयदेव जी राजपूज्य थे। इससे रानी, राजमाता आदि राजमहल की महिलाएँ भी उनके घर पद्मावती जी के पास आकर सत्संग का लाभ उठाया करती थीं। रानी बहुत ही सुशीला, साध्वी, धर्मपरायणा और पतिव्रता थी। परंतु उसके मन में कुछ अभिमान था, इससे किसी-किसी समय वह कुछ दुःसाहस कर बैठती थी। एक दिन पद्मावती के साथ भी वह ऐसा ही दुःसाहसपूर्ण कार्य कर बैठी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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