भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम 4

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम


डाकुओं को क्या पता था कि हमने जिसे मरा समझ लिया था, वही यहाँ सर्वाध्यक्ष है। डाकुओं ने दूर से ही जयदेव जी को देखा और लूले-लँगड़े देखकर उन्हें तुरंत पहचान लिया। वे डरकर भागने का मौका देखने लगे। इतने में ही जयदेव जी की दृष्टि उन पर पड़ी। देखते ही वे वैसे ही आनन्द में भर गये, जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े बन्धुओं को देखकर बन्धु को आनन्द होता है। जयदेव जी ने मन में सोचा, ‘इन्हें धन की आवश्यकता होगी। राजा मुझसे सदा धन लेने को कहा करते हैं; आज इन्हें धन दिलवा दिया जायगा तो बड़ा संतोष होगा।’ जयदेव जी ने राजा से कहा- ‘मेरे कुछ पुराने मित्र आये हैं, आप चाहें तो इन्हें कुछ धन दे सकते हैं।’ कहने भर की देर थी। राजा ने तुरंत उन्हें अपने पास बुलाया और उनकी इच्छा के अनुसार बहुत-सा-धन-धान्य देकर आदरपूर्वक खिलाने-पिलाने के बाद वस्त्रालंकारों से पुनः सम्मानित करके प्रेमपूर्वक उनको विदा कर दिया। धन का बोझ ज्यादा हो गया था तथा रास्ते में सँभाल की भी आवश्यकता थी, इसलिये जयदेव जी ने एक अफसर के साथ चार सेवकों को उनके साथ कर दिया। राह में अफसर ने उनके इतना धन-सम्मान पाने का रहस्य जानने के लिये उनसे पूछा कि ‘भाइयो! आपका निःस्पृह भक्तवर जयदेव जी के साथ क्या सम्बन्ध है, जिससे उन्होंने आप लोगों को इतनी अपार सम्पत्ति दिलवाकर आपके उपकार का बदला चुकाया है?’

पापबुद्धि डाकुओं ने ईश्वर के न्याय और भय को भुलाकर कपट से कहा-‘साहब! तुम्हारा यह अध्यक्ष और हम लोग एक राज्य में कर्मचारी थे। हम लोग अफसर थे और यह हमारी मातहती में काम करता था, इसने एक बार ऐसा कुकर्म किया कि राजा ने गुस्से में आकर इसका सिर उड़ा देने की आज्ञा दे दी। उस समय हम लोगों ने दया करके इसे बचा लिया और इसके हाथ-पैर कटवाकर छोड़ दिया। हम कहीं यह भेद खोल न दें, इसी भय से इसने हमारा इतना सम्मान किया-कराया हैं हमने भी उसका बुरा हो जाने के डर से कुछ भी नहीं कहा।’ डाकुओं का इतना कहना था कि धड़ाम से धरती फटी और चारों जीते ही उसमें समा गये! राजकर्मचारी आश्चर्य में डूब गया। तदनन्तर अफसर नौकरों के सिर पर सारा धन लदवाकर वापस राजधानी को लौट आये और राजा से उन्होंने सारा हाल सुना दिया। राजा ने जयदेव को बुलाकर चकित मन से सब बाते सुनायीं। इतने में ही राजा यह देखकर आश्चर्य और हर्ष में डूब गया कि जयदेव जी की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही है तथा उनके कटे हुए हाथ-पैर उसी क्षण पुनः पूर्ववत स्वाभाविक हो गये हैं।


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