भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम 3

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम


कुछ समय केन्दुबिल्व में रहने के बाद जयदेव जी यात्रा को निकले। एक राजा ने उनका बड़ा सम्मान करके उन्हें अपने यहाँ रखा और वहाँ से चलते समय इच्छा न रहने पर भी बहुत-सा धन उन्हें दे दिया। जयदेव जी ने उसे लेने से इनकार किया; परंतु जब राजा किसी प्रकार भी नहीं माना, तब मन मारकर उन्होंने राजा की प्रसन्नता के लिये निःस्पृह और निर्मम भाव से कुछ धन साथ ले लिया तथा वहाँ से वे अपने गाँव को चल पड़े। मार्ग में कुछ डाकुओं ने पीछे से आक्रमण करके जयदेव जी को नीचे गिरा दिया और देखते-ही-देखते उनके हाथ-पैर काटकर उन्हें एक कुएँ में डाल दिया। अनित्य धन की गठरी के साथ ही उन्होंने महान दुःख के कारणरूप भयानक पाप की भारी पोटली भी बाँध ली। अपनी सफलता पर गर्व करते हुए डाकू वहाँ से चल दिये।

भगवत्कृपा से कुएँ में जल बिलकुल नहीं था, इससे जयदेव जी डूबे नहीं। भगवान की दया से उन्हें कहीं चोट भी नहीं आयी। वे कुएँ के अंदर एक सुन्दर शिला को पाकर उसी पर सुख से बैठ गये और प्रभु के विधान पर परम प्रसन्न होते हुए प्रेम से उनका नाम-गुण-कीर्तन करने लगे। जयदेव जी ने सोचा कि हो-न-हो यह मेरे धन-ग्रहण करने का ही परिणाम है। थोड़ी देर बाद उधर से गौड़ेश्वर राजा लक्ष्मणसेन की सवारी निकली। कुएँ में से आदमी की आवाज आती सुनकर राजा ने देखने की आज्ञा दी। एक सेवक ने जाकर देखा तो मालूम हुआ, कोई मनुष्य सूखे कुएँ में बैठा श्रीकृष्णनाम कीर्तन कर रहा है। राजा की आज्ञा से उसी क्षण जयदेव बाहर निकाले गये और इलाज कराने के लिये उन्हें साथ लेकर राजा अपनी राजधानी गौड़ को लौट आये। श्रीजयदेव जी की विद्वत्ता और उनके श्रीकृष्ण-प्रेम का परिचय प्राप्त कर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा उनके लोकोत्तर गुणों को देख वह उनका भक्त बन गया। राजा ने हाथ-पैर काटने वालों का नाम-पता और हुलिया पूछा। जयदेव जी नाम-पता तो जानते ही नहीं थे; हुलिया भी उन्होंने इसलिये नहीं बताया कि कहीं राजकर्मचारी उनका पता लगाकर उन्हें तंग न करें।

चिकित्सा से जयदेव जी के घाव सूख गये। राजा ने उन्हें अपनी पंचरत्न-सभा का प्रधान बना दिया और सर्वाध्यक्षता का सारा भार उन्हें सौंप दिया। इसके कुछ दिनों बाद इनकी पत्नी पद्मावती भी श्रीराधा-माधव की युगल मूर्ति को लेकर पति के पास चली आयीं। राजा हर तरह से धनादि देकर जयदेव जी का सम्मान करना चाहते; परंतु धन-मान के विरागी भक्त जयदेव मामूली खर्च के सिवा कुछ भी नहीं लेते थे। एक दिन राजमहल में कोई महोत्सव था। उसमें भोजन करने के लिये हजारों दरिद्र, भिक्षुक, अतिथि, ब्राह्मण, साधु आदि आये थे। उन्हीं में साधुवेषधारी वे चारों डाकू भी थे जिन्होंने जयदेव जी को धन के लोभ से उनके हाथ-पैर काटकर कुएँ में फेंक दिया था।


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