भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम

भक्त कविरत्न जयदेव जी और उनका श्रीकृष्ण प्रेम


प्रसिद्ध भक्त कवि जयदेव का जन्म लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व बंगाल के वीरभूमि जिले के अन्तर्गत केन्दुबिल्व नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम वामादेवी था। ये भोजदेव कान्यकुब्ज से बंगाल में आये हुए पन्च-ब्राह्मणों में भरद्वाजगोत्रज श्रीहर्ष के वंशज थे। माता-पिता बाल्यकाल में ही जयदेव को अकेला छोड़कर चल बसे थे। ये भगवान का भजन करते हुए किसी प्रकार अपना निर्वाह करते थे। पूर्व-संस्कार बहुत अच्छे होने के कारण इन्होंने कष्ट में रहकर भी बहुत अच्छा विद्याभ्यास कर लिया था और सरल प्रेम के प्रभाव से भगवान श्रीकृष्ण की परम कृपा के अधिकारी हो गये थे।

इनके पिता को उसी गाँव के निरन्जन नामक एक ब्राह्मण के कुछ रुपये देने थे। निरन्जन ने जयदेव को संसार से उदासीन जानकर उनकी भगवद्भक्ति से अनुचित लाभ उठाने के विचार से किसी प्रकार उनके घर-द्वार हथियाने का निश्चय किया। उसने एक दस्तावेज़ बनाया और आकर जयदेव से कहा- ‘देख जयदेव! मैं तेरे राधा -कृष्ण को और गोपी -कृष्ण को नहीं जानता या तो अभी मेरे रुपये ब्याज समेत दे दे, नहीं तो इस दस्तावेज़ पर सही करके घर-द्वार पर मुझे अपना कब्जा कर लेने दे!’

जयदेव तो सर्वथा निःस्पृह थे। उन्हें घर-द्वार में रत्ती भर भी ममता न थी। उन्होंने कलम उठाकर उसी क्षण दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दिये। निरन्जन कब्ज़ा करने की तैयारी से आया ही था। उसने तुरंत घर पर क़ब्ज़ा कर लिया। इतने में ही निरन्जन की छोटी कन्या दौड़ती हुई अपने घर से आकर निरन्जन से कहने लगी- ‘बाबा! जल्दी चलो, घर में आग लग गयी; सब जल गया।’ भक्त जयदेव वहीं थे। उनके मन में द्वेष-हिंसा का कहीं लेश भी नहीं था, निरन्जन के घर में आग लगने की खबर सुनकर वे भी उसी क्षण दौड़े और जलती हुई लाल-लाल लपटों के अंदर उसके घर में घुस गये। जयदेव का घर में घुसना ही था कि अग्नि वैसे ही अदृश्य हो गयी, जैसे जागते ही सपना!

जयदेव की इस अलौकिक शक्ति को देखते की निरन्जन के नेत्रों में जल भर आया। अपनी अपवित्र करनी पर पछताता हुआ। निरन्जन जयदेव के चरणों में गिर पड़ा और दस्तावेज़ को फाड़कर कहने लगा- ‘देव! मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने लोभवश थोड़े-से पैसों के लिये जान-बूझकर बेईमानी से तुम्हारा घर-द्वार छीन लिया है। आज तुम न होते तो मेरा तमाम घर ख़ाक हो गया होता। धन्य हो तुम! आज मैंने भगवद्भक्त का प्रभाव जाना।’ उसी दिन से निरन्जन का हृदय शुद्ध हो गया और वह जयदेव के संग से लाभ उठाकर भगवान के भजन-कीर्तन में समय बिताने लगा। उसका जीवन भगवत्प्रेममय हो गया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 75 |

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