भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि विचार किया जाय तो स्वरूपतः अशेष-विशेष शून्य पूर्ण परब्रह्म एवं अचिन्त्यानन्द निखिलगुणगणास्पद श्रीभगवान ये एक ही हैं; क्योंकि सजातीय-विजातीय स्वगतभूदशून्य एक स्वप्रकाश तत्त्व ही ‘भगवत्’ शब्द का लक्ष्य है। जैसा कि कहा है-
अर्थात जो अद्वय ज्ञानस्वरूप तत्त्व है; तत्त्वज्ञ लोग उसी को तत्त्व समझते हैं। वह ‘ब्रह्म’, ‘परमात्मा’ या ‘भगवान’ ऐसा कहा जाता है। अतः अद्वितीय परब्रह्म ही भगवान है। जिस प्रकार ‘गच्छतीति गौः’ इस व्युत्पत्ति से ‘गमेर्डोः’ आदि सूत्रों के अनुसार सिद्ध हुआ ‘गो’ शब्द केवल गमन करने वाले का ही वाचक नहीं होता, क्योंकि गमन करने वाले तो सभी पशु हैं, बल्कि गल-कम्बलादियुक्त गो व्यक्ति का ही वाचक होता है, उसी प्रकार यह अद्वय पदार्थ ही भगवत्-पदवाच्य है। किन्तु इसका यौगिक अर्थ लेने पर तो भगोपलक्षित अचिन्त्यानन्त-गुणगणास्पद परमेश्वर ही ‘भगवत्’ शब्द का अर्थ है। इससे यही सिद्ध हुआ कि परमार्थतः जो एक अद्वयतत्त्व सर्वभेदरहित और स्वप्रकाश है वही अपनी अचिन्त्य एवं अनिर्वचनीय लीलाशक्ति से निखिल ब्रह्माण्ड का अधीश्वर भी है। उस भगवान ने ही रमण की इच्छा की। यहाँ दोनों प्रकार से विरोध प्रतीत होता है। यदि उसके निर्विशेष रूप पर विचार करते हैं तो ‘असंगो न हि सज्जते’ इस श्रुति के अनुसार उसका रमण होना असम्भव है। जो स्वप्रकाश, असंग और अद्वय है वह किसको देखकर किसलिये किसके साथ कैसे रमण करेगा? और यदि भगवान के सविशेष स्वरूप पर ध्यान देते हैं तो वे भी सब प्रकार ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से पूर्ण तथा अचिन्त्यानन्दरूप अपने ऐश्वर्य में सन्तुष्ट रहने के कारण आप्तकाम एवं पूर्णकाम हैं। उन्हें किसी को देखकर रमण की इच्छा कैसे हो सकती है? जो अनाप्त काम होता है वही अपने से भिन्न किसी पदार्थ को देखकर उसकी आसक्तिवश रमण की इच्छा कर सकता है। इसी से ‘योगमायामुपाश्रितः’ ऐसा कहा है। योग अर्थात अघटित घटना के लिये जो माया उस योगमाया का सन्निधिमात्र से आश्रय लेकर भगवान ने रमण की इच्छा की। तात्पर्य यह है कि इस योगमाया के प्रभाव से ही उस स्वप्रकाश, असंग एवं अद्वय ब्रह्म की अपने से भिन्न प्रतीत होने वाली गोपांगनाओं के साथ रमण करने में प्रवृत्ति हो गयी। यही उस माया की अघटित-घटनशक्ति है। यह वही माया है जिसके विषय में श्रुति कहती है- “ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्।” अर्थात अपने गुणों से आच्छादित जिस भगवच्छक्ति का ऋषियों ने ध्यान योग से साक्षात्कार किया था। महर्षियों द्वारा साक्षात्कृत तथा कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों की कारणभूता उस अचिन्त्यानन्त माया शक्ति से ही भगवान का अपने से भिन्न किसी को देखना, अपने से भिन्न की इच्छा करना और अपने से भिन्न के साथ रमण करना सम्भव है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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