भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अर्थात जो पूर्ण परब्रह्म परम-वैराग्यवान् परम-ज्ञानवान्, परम-ऐश्वर्यवान और परम-धर्मवान हैं उनका मुरलिका द्वारा गोपांगनाओं को बुलाना वास्तविक नहीं था; बल्कि व्रजांगनाओं की कामनापूर्ति के लिये उन्होंने बनावटी रमणेच्छा प्रकट करते हुए ही यह सब लीला की थी। ऐसा मानने पर ही आप्तकाम की रमणाभिलाषा, निष्क्रिय का क्रियाकलाप और निःसंग की कामुकता उत्पन्न हो सकती है। और यदि ‘अयोगमायामुपाश्रितः’ ऐसा पदच्छेद किया जाय तो इस प्रकार अर्थ समझना चाहिये-‘अकारो वासुदेवस्तेन सह योगाय मा मतिः शोभा वा यस्याः सा अयोगमा तस्यामुपाश्रितः’ अर्थात अकार वासुदेव का वाचक है, उन श्रीवासुदेव के साथ योग कराने के लिये मति अथवा अंगशोभा है जिनकी, वे श्रीराधिका जी योग मां हैं, उनमें उपाश्रित श्रीभगवान ने रमण की इच्छा की। अथवा- “अन्यासां अयोगाय, स्वस्यैव च योगाय मा सौन्दर्यलक्ष्मीर्यस्याः सा योगमा”। जिनकी मा-सौन्दर्यलक्ष्मी, भगवान का दूसरों के साथ विप्रयोग और अपने साथ संयोग कराने वाली हैं वे श्रीराधिका जी योग मां हैं; क्योंकि श्रीवृषभानुनन्दिनी का जो अपूर्व सौन्दर्य है वह भगवान के चित्त को सब ओर से हटाकर उन्हीं में जोड़ देता है। अथवा- “अन्यासामपि व्रजांगनानां सर्वेषां वा प्राणिनां योगाय भगवता श्रीकृष्णेन सह सम्बन्धाय मा सौन्दर्य यस्याः सा योगमा”। अर्थात जिनका सौन्दर्य भगवान के साथ अन्य गोपांगनाओं का तथा समसत प्राणियों का सम्बन्ध कराने वाला है वे श्रीराधिका जी योग मां हैं, क्योंकि श्रीवृषभानुनन्दिनी भगवान श्रीकृष्ण के साथ सबका संयोग कराती हैं। अथवा- “योगाय सर्वेषां श्रीकृष्णसम्प्रयोगयोग्यतासम्पादनाय मा शोभा कारुण्यं कृपा यस्याः सा योगमा तस्यामुपाश्रितः”। अर्थात जिनकी मा-करुणा या कृपा भगवान श्रीकृष्ण के साथ संयोग कराने की योग्यता प्रदान कराने वाली है वे श्रीराधिका जी योग मां हैं; उनमें उपाश्रित श्रीभगवान ने रमण की इच्छा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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