भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा- “योगाय मां मतिं आययति प्रापयति या सा स्वांगकान्तिर्योगमाया तामुपाश्रितः।” अर्थात जो संयोग के लिये मति प्रदान करती है वह अपने अंग की कान्ति ही योगमाया है। उसका आश्रय लेकर, अथवा- “योगाय व्रजांगनाभिः सह उद्दीपनविधया संयोगाय मां मतिं आययति प्रापयति या सा शदद्वनशोभा तामुपाश्रितः।” अर्थात जो उद्दीपन-विभाव होने के कारण व्रजांगनाओं के साथ संयोग करने की मति प्रदान करती है वह शरद्-ऋतु या वन की शोभा ही योगमाया है। उसका आश्रय लेकर भगवान ने रमण की इच्छा की। अथवा- “श्रीकृष्णस्य योगे सम्प्रयोग एव मा शोभा यस्याः सा वृषभानुनन्दिनी योगमा तस्यामुपाश्रितः।” अर्थात श्रीकृष्णचन्द्र के सम्प्रयोग में ही जिनकी शोभा है वे श्रीवृषभानुसुता ही योग मां हैं, उनमें उपाश्रित हुए भगवान ने रमण की इच्छा की; क्योंकि-
जैसे चन्द्रमा बिना चन्द्रिका की, भानु बिना प्रभा की और सरोवर बिना कमलिनी की शोभा नहीं है वैसे ही परमानन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण के बिना श्रीराधिका जी की शोभा नहीं है। इसी से जिस समय उन्हें भगवान का सम्प्रयोग प्राप्त था उस समय उनकी कैसी शोभा थी? किन्तु जब श्रीश्यामसुन्दर का वियोग हुआ तो सारा वृन्दारण्य ही श्रीहीन हो गया। उस समय रसिकशिरोमणिभूता श्रीवृषभानुसुता की जो दशा थी उसका वर्णन ही कैसे किया जा सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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