भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः भक्त, मुमुक्षु और मुक्तों को भी भगवद्विषयिणी सुमति प्रदान करने वाली श्रीराधिका जी ही हैं। भावुक भक्तजन तो उस ऐकान्तिकी भगवननिष्ठा के सामने कैवल्य और अपुनरावर्तनरूप मोक्षपद को भी कुछ नहीं समझते; इसी से भगवान कहते हैं-
किन्तु भगवान के मुख्य भक्त जो ज्ञानी लोग हैं उन्हें किस सुमति की अपेक्षा है? वे तो आप्तकाम हुआ करते हैं। यह ठीक है, परन्तु भगवद्विषयिणी भक्तिरूपा स्निग्धमति उन्हें भी अभिलषित होती है। देखो, सनकादि की भी क्या अभिलाषा थी?
वे कहते हैं-भगवन! यदि हमारा चित्त, भ्रमर के समान आपके चरणकमलों में निरत रहे, यदि हमारी वाणी तुलसी के समान आपकी पादकान्ति का आश्रय ले और यदि हमारे कर्ण-कुहर आपके गुणगण से पूरित रहें तो हमें भले ही अपने पापपुंजों के कारण नरकों में भी जाना पड़े-इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है। इस प्रकार श्रीराधिका जी, जैसे भक्तों को भगवन्निष्ठा और मुक्तों को भगवद्रति प्रदान करती हैं वैसे वे अन्य (विषयी और मुमुक्षु) लोगों को भी प्रमा-भगवत्साक्षात्काररूपा मति प्राप्त कराती हैं, अर्थात मुमुक्षु और विषयी पुरुषों की भगवान के प्रति इष्ट बुद्धि कराती हैं, इसलिये वे योगमाया हैं। उन योगमायारूपा श्रीराधिका जी का आश्रय लेकर भगवान ने रमण करने की इच्छा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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