भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
परन्तु स्वार्थ की निन्दा भी कम नहीं की गयी। स्वार्थ से बढ़कर कोई बुराई नहीं मानी गई। अतः समझना चाहिये कि यहाँ ‘स्व’ शब्द के अर्थ में भेद है। जो पुरुष शरीर को ही ‘स्व’ समझता है वह क्षुद्र है। यह ‘स्व’ जितना ही विस्तृत होगा उतना ही स्वार्थ परमार्थरूप हो जायगा। जो पुरुष ‘स्व’ शब्द का अर्थ शरीर समझेगा उसका सिद्धान्त ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्’ हो जायगा। जो सारे संसार को अपना आत्मा मानेगा उसकी दृष्टि में लोक कल्याण ही आत्म कल्याण होगा और जो स्वयं प्रकाशपूर्ण परब्रह्म में आत्मबुद्धि करेगा वह उस कर्तृव्य-भोक्तृत्वादि शून्य शुद्ध परब्रह्म में जो कर्तृत्वादि का आरोप हो रहा है उसकी निवृत्ति करेगा। इससे उसके यज्ञादि सारे कर्म ही आत्मार्थ होंगे। इस प्रकार देखते हैं कि वास्तविक स्वार्थ तो बहुत ही ऊँचा है। देह, इन्द्रिय, चित्त और चिदाभास को सुख पहुँचाने के लिये जितनी चेष्टाएँ की जाती हैं वे वस्तुतः स्वार्थ नहीं हैं, क्योंकि ये देहादि तो आत्मा नहीं है, बल्कि अनात्मा हैं। यदि कहो कि आत्मा न सही आत्मीय तो हैं ही; अतः आत्मीय होने के कारण भी उनके उद्देश्य से जो कर्म किया जायगा वह स्वार्थ ही कहा जायगा-सो ऐसी बात भी नहीं है; क्योंकि उनमें आत्मीयता की प्रतीति भी भ्रम के ही कारण है। आत्मा तो असंग है; इसलिये उसका किसी के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता-‘असंगो न हि सज्जते’। अतः ‘स्व’ शब्दवाच्य आत्मा के लिये जो चेष्टा है वह तो परम कल्याणमयी ही है, क्योंकि सबके आत्मा तो भगवान कृष्ण ही हैं; वे केवल माया से ही देहवानर् प्रतीत होते हैं-
इससे सिद्ध हुआ कि भगवान सर्वात्मा हैं, अतः यथार्थ स्वार्थ भगवत्प्राप्ति ही है। यहाँ ‘अखिलात्मनाम्’ पद से सविशेषात्मा समझने चाहिये; क्योंकि सविशेषात्माओं का ही आत्मा निर्विशेष आत्मा है, जैसे घटाकाशादि का अधिष्ठान महाकाश है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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