भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा- “योगाय व्रजांगनाभिः सह सम्बन्धाय भगवतः श्रीकृष्णस्य मां मतिम् आययति या सा वृषभानुनन्दिनी योगमाया तामुपाश्रितः।” व्रजांगनाओं के साथ सम्बन्ध करने के लिये भगवान की बुद्धि को प्रवृत्त करने वाली जो श्रीवृषभानुनन्दिनी हैं वे ही योगमाया हैं, उनका आश्रय कर उन्होंने रमण करने की इच्छा की। लोक में तो सापत्न्यभाववश ईर्ष्या रहा करती है; परन्तु इधर श्रीवृषभानुनन्दिनी परम करुणामयी हैं; उनकें सापत्न्यभाव नहीं है। उनके कारण उनकी लीला-भूमि के जीव-जन्तुओं का भी पारस्परिक विरोध निवृत्त हो जाता है। इसी से वहाँ समस्त ऋतुओं का एकत्र समावेश होता है। तो फिर स्वयं उन वृषभानुदुलारी में ही विरोध कैसे रह सकता है? वे तो यही चाहती हैं कि सारा संसार मेरे ही समान भगवान के अति-विशुद्ध सौन्दर्य सुधारस का पान करे। यह बात सर्वथा निश्चित ही है कि जब तक जीव भगवान से तादात्म्य प्राप्त नहीं करता तब तक वह परम पद का अधिकारी नहीं हो सकता और न उसका दुःख ही निवृत्त हो सकता है। इसी से यह भी देखा जाता है कि जो लोग आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करते हुए परब्रह्म परमात की ओर अग्रसर हो रहे हैं उनकी भी अन्य लोगों के प्रति ऐसी भावना नहीं कि वे हमारी ओर न आयें। महर्लोकवासियों के विषय में भी यही कहा है कि वे सर्वसुख सम्पन्न होने पर भी केवल इसीलिये दुःखी रहते हैं कि उनकी अपेक्षा निम्नतर लोगों में रहने वाले जीव उस अति विलक्षण भगवत्सुख का समास्वाद नहीं कर सकते। उन अज्ञानियों के प्रति करुणा होने के कारण ही उनके हृदय में खेद होता है-‘यच्चित्ततोदः कृपयाऽनिदंविदाम्।’ अतः भक्ति मार्ग या ज्ञान मार्ग में प्रवृत्त होने वाले जितने लोग हैं, वे यही चाहते हैं कि अन्य पुरुष भी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करें। इसी से उनमें सम्प्रदाय वृद्धि की भावना देखी जाती है। इस प्रकार जब सामान्य साधकों में भी अपने साथ ही भगवान की ओर सब लोगों को जाने की प्रवृत्ति देखी जाती है तो साक्षात् प्रेमरूपा श्रीवृषभानुनन्दिनी की सहृदयता एवं लोकहितैषिता के विषय में तो कहा ही क्या जा सकता है? उनमें किसी प्रकार की ईर्ष्या कैसे रह सकती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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