भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इससे सिद्ध हुआ कि व्रजांगनाओं के मन, बुद्धि, इन्द्रिय और देह ये सब भगवत्परतन्त्र हैं। ‘अयोगमायामुपाश्रितः’- इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है-
अर्थात लोकिक-वैदिक व्यवहार में उपयोगी जितने पुत्र, पति आदि हैं उनके अयोग अथवा लौकिक, वैदिक व्यवहारों के अयोग-असम्बन्ध के लिये जिसमें शब्द है उस मुरली का आश्रय लेकर भगवान ने रमण की इच्छा की। व्रजांगनाएँ लौकिक-वैदिक कर्मों में परिनिष्ठित थीं। उनका लौकिक-वैदिक कर्मों से विच्छेद कराने के लिये अथवा उन्हें भगवद्व्यतिरिक्त सम्बन्धों से छुड़ाने के लिये इस मुरली का का शब्द अत्यन्त समर्थ है, क्योंकि इसी से आकर्षित होकर वे सारे सम्बन्धों और कृत्यों को तिलांजलि देकर भगवान की सन्निधि में आती हैं। अथवा- “योगमायामुपाश्रितः योगाय भगवता सम्बन्धाय माया कृपा यस्याः कात्यायन्यास्तां कात्यायनीमुपाश्रितः भगवान रन्तुं मनश्चक्रे।” अर्थात योग (भगवान के साथ सम्बन्ध) कराने के लिये जिसकी माया-कृपा है, उस कात्यायनी देवी का आश्रय लेकर भगवान ने रमण करने की इच्छा की। अथवा- “योगाय सम्बन्धाय मां मतिम् आययति प्रापयति या सा योगमाया कात्यायनी तामुपाश्रितः।” योग अर्थात सम्बन्ध के लिये जो मां-मति को प्राप्त कराती है वह कात्यायनी देवी ही योग मां है, उसका आश्रय लेकर भगवान ने रमण की इच्छा की। क्योंकि कात्यायनी देवी के अर्चन द्वारा ही ऐसा अदृष्ट हुआ था कि जिससे गोपांगनाओं को भगवान की प्राप्ति हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘माङ्माने शब्दे च’।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज