भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा- अगा अचला मा मतिः यस्याः सा अगमा तस्यामुपाश्रितः। अर्थात जिनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण से कभी नहीं हटता था, जिनके मन, देह और इन्द्रियवर्ग भगवान से तनिक भी बिछुड़ना नहीं चाहते थे उन गोपांगनाओं में उपाश्रित हो भगवान ने रमण की इच्छा की। जब भगवान का वेणुनाद सुनकर समस्त व्रजवनिताएँ भगवान के पास दौड़ आयीं और भगवान ने उन्हें पातिव्रत का उपदेश देते हुए घर लौट जाने को कहा तो वे कहने लगीं-
उन्होंने कहा- जो चित्त गृहकृत्यों में लग सकता था उसे तो आपने हर लिया। रहे हाथ, सो वे भी उसी समय घर के धन्धों में प्रवृत्त होते हैं जब चित्त इनका साथ दे और तभी चरण भी चल सकते हैं। किन्तु अब, जबकि आपने वेणुनाद द्वारा हमारा चित्त हर लिया है, हमारा मन उनमें कैसे लग सकता है? अब तो आपसे विमुख होकर ये चरण आपके चरणों को छोड़कर एक पग भी नहीं चल सकते। अतः हम किस प्रकार व्रज को जायँ और करें तो क्या करें? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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