भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अथवा- “शरदा निमित्तेन शान्त्यावहेन उत्फुल्लमल्लिकाभासानि संसारसुखानि यासु।” अर्थात शान्दि आदि के कारण जिनके लिये संसार सुख केवल पुष्परूप यानी देखने मात्र के लिये रह गये, ऐसी प्रजाओं को देखकर भगवान ने योगमाया का आश्रय ले, उन प्रजाओं को आवाहन कर उनके अन्तःकरण में रमण करने का विचार किया; क्योंकि ज्ञानीरूपा प्रजा का रमण अपने आत्मभूत भगवान के ही साथ होता है। ज्ञानी लोग आत्मरति ही हुआ करते हैं। इसी से ज्ञानी को लक्ष्य करके कहा है-‘एकभक्तिर्विशिष्यते’, क्योंकि उसकी भक्ति, रति, मति एकमात्र भगवान में ही होती है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि भगवान की यह लीला मुमुक्षुओं के ही लिये है। इस लीला के व्याज से भगवान ने निवृत्ति पक्ष का ही पोषण किया है। भगवान ने इस लीला द्वारा यह प्रदर्शित किया है कि जिनके एक रोम के सौन्दर्यकण से भी अनन्तकोटि कन्दर्पों का दर्प दलित हो जाता है उन्हीं श्रीहरि के साथ सुरम्य यमुना कूल में अनन्तकोटि ब्राह्मरात्रियों पर्यन्त रमण करके भी व्रजबालाएँ सन्तुष्ट नहीं हुईं तो साधारण सांसारिक लोग इन बाह्य विषयों से किस प्रकार सन्तुष्ट हो सकते हैं? इस लीला द्वारा भगवान ने अपने में अनुरक्तों की अनुरक्ति और संसार से विरक्तों की विरक्ति दोनों ही पुष्ट की है। इसी प्रकार भगवान श्रीराम ने भी सीताहरण के पश्चात शोकाकुल होकर विषयासक्त पुरुषों की दुर्दशा का प्रदर्शन किया था-‘कामिन की दीनता दिखाई।’ भगवान श्रीराम स्वयं तो अच्युत हैं, उन्हें कोई भी परिस्थिति कैसे विचलित कर सकती है? और अपनी आह्लादिनी-शक्ति श्रीजनकनन्दिनी जी से उनका वियोग होना भी कब सम्भव है? परन्तु इस नरनाट्य से कामियों की दीनता दिखलाकर उन्होंने विरक्तों के वैराग्य को ही सृदृढ़ किया है। वस्तुतः कामोपभोग से काम की कभी तृप्ति नहीं हो सकती; बल्कि जैसे-जैसे भोग्य सामग्री प्राप्त होती जाती है, वैसे-वैसे ही घृताहुति से अग्नि के समान वह और भी प्रज्वलित होता जाता है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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