भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ पूर्ण स्वात्मसमर्पण है, क्योंकि अन्य-निष्ठाओं में अपना पृथक अस्तित्व रह ही जाता है। अथवा ‘रात्रीः’ पद का यह भी तात्पर्य हो सकता है कि वह आत्मस्वरूपा होने के कारण रात्रियों के समान हैं, क्योंकि ये आत्मस्वरूपा हैं और व्यवहार का अविषय होने के कारण अज्ञानियों के लिये आत्मा रात्रिरूप ही है। अथवा यह भी तात्पर्य हो सकता है कि जितना व्यावहारिक प्रपंच है वह जिसकी दृष्टि में रात्रिरूप अर्थात असत् है वह ज्ञानीरूपा प्रजा रात्रि है। अथवा जिस प्रकार रात्रि अस्पष्ट प्रकाश वाली होती है उसी प्रकार यह ज्ञानीरूपा प्रजा भी अस्पष्टप्रकाशा अर्थात अव्यक्त गति है; जैसा कि कहा भी है-
पुनः यह ज्ञानीरूपा प्रजा कैसी है? “शरद्यपि जाड्यमये अविद्यालेशावशेषयुक्तेऽपि अन्तःकरणे उत्फुल्लानि मल्लिकोपलक्षितशान्तिदान्त्याद्यशेषपुष्पाणि यासां हृदि इति शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।” अर्थात शरद् में यानी जिनके अविद्यालेशावशेषयुक्त अन्तःकरण में भी शान्ति, दान्ति आदि मल्लिकोपलक्षित समस्त पुण्य विकसित हो रहे हैं। “विवेकविचाररूपैः शरैरर्दिताः खण्डिताः इति शरदाः उत्फुल्लमल्लिकाः उत्फुल्लमल्लिकाद्युपलक्षितानि संसारसुखानि यासु।” अर्थात विवेकविचाररूप शरों से खण्डित उत्फुल्लमल्लिकादि उपलक्षित संसार सुख हैं जिनमें, वे रात्रियाँ ‘शरदोत्फुल्लमल्लिका’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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