भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह बात तो अमना भगवान के विषय में है। ये व्रजांगनाएँ तो सुमनसों की शिरोमणि हैं। अतः उनका जो मन है, वह तो प्रेम का आकर है ही। उनके प्रेमकण से ही समस्त संसार प्रेममय हो रहा है। अतः इनके प्रेममधु-आकरमन का प्रेममधु-मधुप भगवान समाश्रयण करेंगे ही। इसी से भगवान ने गोपांगनाओं का आह्वान कर उनके साथ रमण करने की इच्छा की। अथवा योगमायामुपाश्रितः-इस पद का यह तात्पर्य समझो-‘अन्यत्र चंचलापि भगवत्यचंचला या मा सा अगमा तस्यामुपाश्रितो यः’ अर्थात अन्यत्र चंचला होने पर भी जो भगवान के प्रति अचंचला है उस मा लक्ष्मी को अगमा कहते हैं। उस अगमा में जो भगवान उपाश्रित हैं उन्हीं ने रमण की इच्छा की। यह बात गोपांगनाओं के प्रेमसौष्ठव की द्योतक है। इसी के पोषण में यह भी अर्थ किया जाता है-‘अगमा दुरवगममाहात्म्या या मा वृषभानुनन्दिनी तस्यामुपाश्रितः’-जिन श्रीवृषभानुनन्दिनी का माहात्म्य अत्यन्त दुर्बोध है उनमें आश्रित जो भगवान उन्होंने रमण की इच्छा की। इसका तात्पर्य यह है कि लक्ष्मी जी का माहात्म्य तो सुज्ञेय है, किन्तु श्रीवृषभानुनन्दिनी की महिमा अत्यन्त दुर्बोध है। क्योंकि जिन श्रीभगवान के कृपाकटाक्ष की अपेक्षा समस्त देवगण रखते हैं वे ही इनके कृपाकटाक्ष की बाट निहारा करते हैं। वे वृषभानुनन्दिनी कैसी हैं? ‘न गच्छतीति अगा, अगा अचला सदैकरूपा मा अंगशोभा सौन्दर्यलक्ष्मीः यस्याः सा- अर्थात जिनके अंग की शोभा सर्वथा अक्षुण्ण है उन्हीं श्रीराधिका जी के अद्भुत सौन्दर्य-माधुर्य से मोहित हुए श्रीभगवान ने उन्हें बुलाकर उनके रमण करने की इच्छा की। यहाँ तक अज्ञ और मुमुक्षुओं की दृष्टि से अर्थ किये गये, अब मुक्तों की दृष्टि से व्याख्या करते हैं- “ताः ज्ञानीरूपाः प्रजा वीक्ष्य ता आहूय ताभिः सह रन्तुं मनश्चक्रे”- उन ज्ञानीरूपा प्रजाओं को देखकर उनका आह्वान कर उनके साथ रमण करने की इच्छा की। वे ज्ञानीरूपा प्रजाएँ कैसी हैं?-‘ताः’-तदात्मिका अर्थात भगवद्रूपा हैं, क्योंकि ऐसा कहा भी है- “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’, ‘एकभक्तिर्विशिष्यते’ इत्यादि। और कैसी हैं? -‘रात्रीः’ अर्थात भगवान में अशेष-विशेष समर्पण करने वाली हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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