भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
और जहाँ प्रपंच के मिथ्यात्व और सत्यत्व दोनों ही भावों से रहित द्रुतिचित्त से केवल भगवान का ही ग्रहण हो वह तीसरी कोटि की उत्तमा भक्ति है; जैसे-
इस प्रकार द्रुतचित्त की भगवदाकारा मानसी वृत्ति को ‘मा’ कहते हैं; अयोगों की जो मा- प्रीति अर्थात मति है वही ‘अयोगमा’ है, उस अयोगमा में उपाश्रित हुए अर्थात व्रजांगनाओं की ऐसी प्रीतिमती बुद्धि से आकर्षित हुए भगवान ने रमण करने की इच्छा की। अर्थात अपने प्रति जो ऐसी प्रीतिमती बुद्धि है उसके परतन्त्र हुए भगवान उन गोपांगनाओं का आवाहन कर उनके साथ रमण करने की इच्छा की। क्योंकि भगवान प्रेममधु-मधुकर हैं, और जो प्रेममधु-आकर सुमनसों के समनस हैं उनके प्रति भगवान का आकर्षण होना उचित है। उधर जिनका चित समस्त सुमनाओं के सुमनस श्रीभगवान के प्रति आकर्षित हेाता है, वे सुमना कहे जाते हैं। श्रीभगवान के प्रति आकर्षित होना ही उनका सुमनस्त्व है। अतः शोभन स्वभाव वालों का सिद्धान्त यही है कि भगवान से प्रीति करें। वही वाक् सुन्दर है जिसे भगवान का गुणगान होता है, वे ही कर्णपुट धन्य हैं जिनमें भगवत्कथाओं का श्रवण होता है और वे ही चरण धन्य हैं जिनसे भगवद्धामों में गमन होता है। इसी से अर्जुन से भी भगवान ने यही कहा है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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