भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार अयोग और योग दोनों ही पदों से गोपांगनाएँ अभिप्रेत हैं। अतः- योगानामयोगानांच या मा स्वविषयिणी प्रीतिमती[1] मा प्रमा स्निग्धा मानसी वृत्ति: या योगमा। अर्थात योग और अयोग इन दोनों की ही जो अपने प्रति प्रेममयी मनोवृत्ति है वह योगमा है। भक्ति और ज्ञान ये दोनों अन्तःकरण के ही परिणाम हैं। परमप्रेमास्पद भगवान का जो अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक चिन्तन है वही भक्ति है। इसी प्रकार प्रमा भी अन्तःकरण की ही वृत्ति है। परन्तु जो मानसिक द्रवता की अपेक्षा से रहित अन्तःकरण की प्रमेयाकाराकारित वृत्ति है उसका नाम प्रमा है और जो प्रमाण अथवा संस्कारजनित द्रवता की अपेक्षा वाली प्रेमास्पदाकारा वृत्ति है उसे भक्ति कहते हैं। वेदान्त में जिन भक्ति और ज्ञान का विचार किया गया है उनके स्वरूप, साधन और फल श्रीमधुसूदन स्वामी ने भिन्न-भिन्न बतलाये हैं। वे कहते हैं कि अन्तःकरण की जो सविशेष भगवदाकाराकारित स्निग्धा वृत्ति है वह भक्ति है और जो अन्तःकरणद्रवतानपेक्ष महावाक्यजनित निर्विशेष ब्रह्माकाराकारित वृत्ति है उसे ज्ञान कहते हैं। उनके कथनानुसार भक्ति के तीन भेद हैं- प्राकृत, मध्यमा और उत्तमा। उनमें प्राकृत भक्त वह है जो केवल भगवान की प्रतिमाओं में ही श्रद्धा रखता है और उन्हीं की पूजा करता है, भगवान के भक्तों तथा अन्य पुरुषों में श्रद्धा नहीं रखता; यथा-
जो ईश्वर में प्रेम करता है, भगवान के आश्रित रहने वालों के प्रति मित्रता का भाव रखता है, मूर्खों पर कृपा करता है और भगवद्द्वेषियों की उपेक्षा करता है वह मध्यम है-
तथा उत्तम भक्त उसे कहते हैं जो सम्पूर्ण प्राणियों में अपना भगवद्भाव देखता है और समस्त प्राणियों को अपने आत्मारूप भगवान में देखता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रीतिर्द्रुतिः प्रणयो द्रवावस्था इति मधुसूदनस्वाम्युक्तेः।
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