भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वह परब्रह्म कैसा है? ‘मा रमणम्-मायां रमणं यस्य’ अर्थात जिसका ब्रह्माकारप्रमा अथवा श्रीवृषभानुनन्दिनी में रमण है; और कैसेा है-‘जारम्’ अर्थात जो जारबुद्धि से वेद्यमात्र है, वस्तुतः जार नहीं; क्येांकि परमात्मा है। अथवा ‘जरयति कामवासनाम् इति जारम्’ कामवासना को जीर्ण कर देता है इसलिये ब्रह्म जार है। ऐसे मुझ परब्रह्म को ‘ताः शतसहस्रशः संगात्प्रापुः’-उन सैकड़ों-हजारों गोपांगनाओं ने (ललितादि के) संग से प्राप्त कर लिया। अर्थात पहले वे कान्तभाव वाली थीं किन्तु इनके सहवास से सख्यभाव वाली हो गयीं। ‘ताः’ शब्द विलक्षणता का द्योतक है- यह बात ऊपर कही जा चुकी है। उन रात्रियों की विलक्षणता का यद्यपि पहले भी वर्णन किया जा चुका है तथापि यहाँ हम फिर उनकी कुछ विलक्षणताओं का विचार करते हैं। उनमें एक तो यह बहुत बड़ी विलक्षणता थी कि अनन्तकोटि ब्राह्मरात्रियों का एक ही समय में निर्माण हुआ और वे सबकी सब पूर्णचन्द्र सम्पन्ना थीं। यद्यपि दक्ष प्रजापति के शाप के कारण चन्द्रमा की पूर्णता स्थायी नहीं है तथापि यहाँ भगवान ने जो रात्रियाँ बनायीं वे सभी पूर्णचन्द्र समलंकृता थीं। साथ ही एक विशेषता और भी थी। अन्य रात्रियों में चन्द्रमा पूर्व दिशा में उदित होकर जब मध्याकाश में पहुँच जाता है तो फिर वह जैसे-जैसे पश्चिम की ओर जाता है वैसे-वैसे ही उसकी ज्योति क्षीण होने लगती है, परन्तु इन रात्रियों में चन्द्रमा की गति कवेल मध्याकाश पर्यन्त ही थी। इसके सिवा एक विचित्रता यह भी थी कि रात्रियों का अनुभव केवल व्रजांगनाओं को ही हुआ था और सबके लिये तो वह एक प्राकृत रात्रि ही थी। यदि सबको ऐसा ही अनुभव होता तो इतने समय तक पुत्रप्राणा यशोदा और स्नेहमूर्ति नन्दबाबा किस प्रकार अपने लाड़ले लाल का पार्थक्य सहन कर सकते? यह नियम है कि जब किसी दरिद्र को कोई महामूल्य रत्न मिल जाता है तो वह पल-पल में उसकी सँभाल करता रहता है। इसी प्रकार माता यशोदा और नन्दबाबा भी अचिन्त्यानन्दघन परमानन्दमूर्ति भगवान कृष्ण को पुत्ररूप से पाकर पल-पल में उनका मुखचन्द्र निहारने को लालायित रहते थे और रात्रि में भी कई बार उठकर अपने लाल की देख-रेख करते थे। अतः उस रात्रि में ही वे इतनी देर कैसे सोते रह सकते थे? परन्तु वे जब उठे तभी उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने पास ही देखा। इस प्रकार, ये रात्रियाँ बड़ी ही विचित्र थीं। इन्हीं रात्रियों में अनन्तकोटि व्रजांगनाओं की चिरकालीन कामना पूर्ण हुई थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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