भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यही नहीं, वे वहाँ की भीलनियों के सौभाग्य की भी सराहना करती हैं।
वृन्दारण्य के जो तृणगुल्म-लतादि हैं, उनसे भगवान श्रीकृष्ण के चरणों का संयोग होने के कारण उनमें जो भगवान के पादपद्मों में लगा हुआ प्रियतमाओं का कुचकुंकुम लग गया है उसके सौगन्ध्य से विमुग्ध होकर कामज्वर से सन्तप्त हुई भीलनियाँ उस कुंकुम को अपने हृदय और मुख में लगाकर उस ताप को शान्त करती हैं। वे बड़ी भाग्यशीला हैं। उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के साथ अनुरागिणी व्रजांगनाओं का संयोग कराने वाली इन रात्रियों की विलक्षणता का वर्णन कौन कर सकता है? जब से भगवान ने कहा था कि ‘मयेमा रंस्यथः क्षपाः’ तभी से गोपांगनाओं की दृष्टि इन्हीं रात्रियों पर लगी रहती थी। इन रात्रियों का सर्वत्र ताः इमाः आदि सर्वनामों से ही वर्णन किया गया है। एक बार भगवान ने भी उद्धव जी से कहा था-
हे उद्धव! उन व्रजांगनाओं ने अपने परम प्रियतम मेरे साथ वे अनन्तकोटि ब्राह्मी रात्रियाँ आधे क्षण के समान बिता दी थीं। जिस प्रकार समाधिस्य योगियों को अत्यन्त दीर्घ काल भी कुछ मालूम नहीं होता, उसी प्रकार मेरे साथ उन्हें वे रात्रियाँ कुछ भी न जान पड़ीं। किन्तु अब मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये कल्प के समान हो जाती थीं। यहा ‘मया’ शब्द में भी विलक्षणता है। इससे अस्मत्प्रत्ययगोचर शुद्ध परब्रह्म भी ग्रहण किया जा सकता है। उसके साथ योग होने पर भी समय कुछ मालूम नहीं होता। अतः इससे पूर्ण योगीन्द्र भी ग्रहण किये जा सकते हैं। परन्तु यहाँ अस्मत्‘-प्रत्ययगोचर शुद्ध ब्रह्म अभिप्रेत नहीं है बल्कि वृन्दावन-गोचर परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ही अभिप्रेत हैं। फैली हुई वस्तु यदि इकट्ठी हो जाय तो उसमें कुछ विलक्षणता हो ही जाती है। अतः जो व्यापक पूर्णतत्त्व श्यामसुन्दर-रूप में वृन्दारण्य में गोचर हुआ उसमें विलक्षणता होनी ही चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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