भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ व्रजांगनाओं ने संसारभर में सबसे बड़ा फल यही बताया है कि जिन्हें विधाता ने नेत्र दिये हैं, वे अपने समवयस्क बालकों के साथ पशुओं को गोष्ठ में प्रवेश कराते हुए दोनों नन्दकुमारों के अनुरक्त-कटाक्षमोक्षमण्डित वंशी-विभूषित मुखारविन्द का पान करें। इसके सिवा यदि कोई और भी फल हो सकता हो, तो हम उसे जानतीं नहीं। स्मरण रहे, ये श्रुतियाँ हैं- साक्षात श्रुतिदेवियाँ हैं, यदि ये ही नहीं जानतीं तो और कौन जानेगा? इस श्लोक में ‘व्रजेशसुतयोः’ यह तो द्विवचन है किन्तु ‘वक्त्रम्’ एकवचन है। इसका क्या रहस्य है? इसका तात्पर्य यह है कि गोपांगनाओं का अभिमत तो केवल भगवान श्रीकृष्ण का ही मुखचन्द्र है; परन्तु परकीया थीं न, इसलिये अपना भाव छिपाने के लिये द्विवचन दिया। किन्तु जब तक वे प्रेमातिशय से विभोर न हुई तब तक तो भावगोपन कर लिया, पर प्रेमातिरेक होने पर वे अपने को न सम्हाल सकीं और उनके मुख से ‘वक्त्रम्’.................‘अनुवेणु-जुष्टम्’ निकल ही गया। उस वेणुजुष्ट मुख का विशेषण ‘अनुरक्तकटाक्षमोक्षम्’ दिया है। यह उसकी मधुरता और लावण्य सूचित करने के लिये है। अर्थात जिन भगवान श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र पर अनुरागिणी गोपांगनाओं के कटाक्षबाण छूटते थे; अथवा जिस मुख में अनुरागिणी व्रजांगनाओं के लिये कटाक्षमोक्ष होता था। अतः भगवान का रसस्वरूप मुख ही व्रजबालाओं का ध्येय है, उन्हें भगवत्सम्बन्ध ही परम अभिलषित था। इसी के लिये वे दूसरों से ईर्ष्या भी करती थीं। एक जगह वे कहती हैं-
उन्हें इस समय यह भी ध्यान नहीं था कि ये हरिणियाँ चेतन हैं या अचेतन और इन्हें वस्तुतः भगवान के प्रति अनुराग है या नहीं। इसी से वे कहती हैं कि इन हरिणियों का जो प्रेमरसप्लुत नेत्रों से निरीक्षण है उसके द्वारा वे मानों भगवान की पूजा ही करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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