भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इससे सिद्ध होता है कि भगवान ने यह लीला मुमुक्षुओं के कल्याण के लिये ही की थी, जिससे वे उस लीला-कथा का पान करते हुए भगवान को प्राप्त कर सकें और यदि ‘अयोगमायामुपाश्रितः’ ऐसा पद समझा जाय तो ‘न युज्यते उपाधिसंग न प्राप्नोति इति अयोगः तस्य या प्रमा तस्यामुपाश्रितः’ अर्थात जो उपाधि संसर्ग को प्राप्त नहीं होता उसकी प्रमा अर्थात अपरोक्षानुभव के लिये जो मुमुक्षुओं द्वारा आश्रित है। अथवा ‘योगः उपाध्यध्यासः, तस्य अभावः अपवादः अयोगः’-उपाधिजनित अध्यास के अभाव का ही नाम अयोग है, उसकी जो प्रमा है उसका नाम अयोगमा है, उस अयोगमा के लिये जो भगवान मुमुक्षुओं द्वारा उपाश्रित हैं उन्होंने रमण की इच्छा की, क्योंकि यह नियम है कि उपाधिजनित अध्यास का निराकरण सूक्ष्मातिसूक्ष्म परब्रह्म के ज्ञान से ही होता है। यह ज्ञान कब होता है? इस विषय में भगवान स्वयं कहते हैं-
अर्थात मेरी पवित्र गाथाओं के श्रवण और कीर्तन द्वारा जैसे-जैसे यह अन्तरात्मा स्वच्छ होेता जाता है वैसे-वैसे ही साधक सूक्ष्म-वस्तु का साक्षात्कार करता जाता है, जिस प्रकार कि अंजनयुक्त नेत्र। अतः उपाध्यध्यास की निवृत्ति का एकमात्र साधन भगवत्लीलाओं का अभ्यास ही है। श्रीमद्भागवत में कहा है-
हे भगवन! यदि आप यह लीलामय विग्रह धारण न करें तो अज्ञान का भेदन करने वाले विज्ञान की सफाई ही हो जाय। यदि कोई कहे कि हम अनुमान कर लेंगे, क्योंकि चक्षु, श्रोत्र एवं त्वचा आदि इन्दियों द्वारा जो विषयों का ग्रहण हुआ करता है वह आत्मतत्त्व के अस्तित्व का द्योतक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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