भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान की अचिन्त्य महाशक्तिरूपा योगमाया श्री, भू और लीलारूपा है। इनमें से प्रधानतया लीलाशक्ति का आश्रय लेकर भगवान ने रमण की इच्छा की। पहले जहाँ मुमुक्षुरूपा प्रजा का उल्लेख किया है, वहाँ ‘योगमायामुपाश्रितः’ इस पद का तात्पर्य इस प्रकार समझना चाहिये-‘योगाय स्वस्मिन् योजनाय या माया कृपा’ अर्थात योग अपने में जोड़ने के लिये जो माया (कृपा); अथवा ‘योगाय स्वलीलासुखे योजनाय या माया कृपा’-योग अर्थात अपने लीलासुख में युक्त करने के लिये जो कृपा; अथवा ‘यः भगवान अगमायामुपाश्रितः’-जो भगवान अगमा में उपाश्रित हैं उन्होंने रमण की इच्छा की। अगमा क्या है? ‘न गच्छति चलति इति अगः कूटस्थं ब्रह्म, तस्य या प्रमा’ अर्थात जो गमन नहीं करता उस कूटस्थ ब्रह्म का नाम अग है, उसकी प्रमा यानी अपरोक्ष साक्षात्कार ही अगमा है; ‘तस्या’ अगमाया तत्सम्पादने मुमुक्षुभिरुपाश्रितः यः सः’-उस अगमा में अर्थात उसका सम्पादन करने में जो मुमुक्षुओं द्वारा आश्रय किया जाता है, उस परब्रह्म ने मुमुक्षुओं पर अनुग्रह करने के लिये ही रमण करने को मन किया, क्योंकि सच्चिदानन्द रूप श्रीहरि का अपरोक्ष साक्षात्कार उनकी लीला-कथाओं के अनुशीलन से ही होता है।
भाव यह है कि-हे देव! कोइ तो आपके कथामृत-पान से बढ़ी हुई भक्ति के कारण विशुद्धान्तःकरण होकर, वैराग्य ही जिसका सार है ऐसा बोध प्राप्त करके आपके निर्द्वन्द्व धाम को प्राप्त होते हैं और कोई आत्मसंयम के द्वारा समाधि लाभ कर उससे प्रबल प्रकृति को जीतकर परम पुरुष आपको ही प्राप्त होते हैं। किन्तु उन्हें श्रम होता है और आपकी सेवा में कोई कष्ट नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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