भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
परममोक्ष सर्वत्र एक ही है, फिर अनन्तवैकुण्ठ, अनन्तआनन्द-समुद्रादि कैसे संगत होंगे? इस शंका का समाधान यह है कि अविद्या पाद में ही जब अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड है, तब एक-एक ब्रह्माण्ड में वैकुण्ठ तथा विविध विभूतियों में क्या आपत्ति है? फिर तीनों पादों के वैकुण्ठो से सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है? निरतिशया- नन्दाविर्भाव मोक्ष है, यह त्रिपाद ब्रह्म में सर्वदा प्रकट रहता है। वह पादत्रय ही परम वैकुण्ठ एवं परम कैवल्य है, इसलिये अविद्या, विद्या, आनन्द और तुर्य, इन चारों पादों में अनन्त वैकुण्ठ, अनन्त आनन्द-समुद्रादि ठीक ही है। इस तरह उपासक परम वैकुण्ठ में पहुँचकर भगवान का ध्यान करके निरतिशयाद्वैत परमानन्दस्वरूप होकर, सावधानी से अद्वैत योग में स्थित होकर, अद्वैत परमानन्द का अनुसन्धान करके स्वयं शुद्धबोधानन्दस्वरूप होकर महावाक्य का स्मरण करता हुआ अपने आत्मा को ब्रह्म और ब्रह्म को आत्मा समझ लेता है, अपने को ब्रह्म में होम देता है। फिर ‘अह ब्रह्म’ की भावना से निस्तरंग, अद्वैत, अपारनिरतिशय सच्चिदानन्द, ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। जो इस मार्ग से सम्यक अभ्यास करता है, वह अवश्य ही नारायध हो जाता है। ‘त्रिपाद्विभूति महानारायणोपनिषद्’ में इस विषय पर बड़ा ही सुन्दर विवेचन है, यहाँ तो उसका सारांशमात्र ही दिया गया है। लोग-लोकान्तरों एवं भगवद्विग्रह विलासादि यहाँ साम्प्रदायिक वैष्णवों एवं शैवों से भी सुन्दर है। विशेषता यह है कि यहाँ अद्वैतसिद्धान्त के पोषण में पूर्ण ध्यान रखा गया है। शुद्धसत्त्वमयी शक्तिसंस्पृष्ट, चिदानन्दप्रधान तत्त्व अनन्तानन्तवैकुण्ठादि का सभी तारतम्य मान्य है। शक्त्यीत तत्त्व सर्वथा, निराकार, निर्विकार, निर्विशेष ही हैं। शक्ति की अनिर्वचनीयता के कारण वस्तुतः शक्तिसंस्पृष्ट भी सर्वदा, सर्वधा सर्वातीत ही है, अतः वह सर्वदा, सर्वथा, सर्वदेश, काल एवं वस्तुओं से अतीत है। इसीलिये उससे व्यतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है, सब कुछ वही है। दृष्टि को लेकर पुराणों में भगवल्लोको एवं स्वरूपों का वर्णन है। |
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