भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
शब्दादि विषयों के आकार से आकारित वृत्तिमान, अन्तःकरण, आत्मचैतन्य-ज्योति से देदीप्यमान होकर ही शब्दादि-विषय का प्रकाशन करता है। भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं, यह बात भी भागवत के निम्नलिखित वचनों से स्पष्ट है-
जबकि प्राणिमात्र के लिये जल, तेज तथा वायु का सर्वांगीण स्पर्श अनिवार्य है तब ऐसी कौन सी पतिव्रता है जिसके सर्वांग का स्पर्श वायु, आकाश आदि से न होता हो? फिर भगवान श्रीकृष्ण तो आकाश और अहंतत्त्व, महत्तत्त्व तथ अव्यक्ततत्त्व इन सभी के अधिष्ठान और इन सभी से आन्तर हैं। इस बात का भी वहीं उल्लेख है जहाँ श्रीकृष्ण की चीरहरण और रासक्रीड़ा प्रभृति लीलाओं का वर्णन है।
समस्त वस्तुओं का याथात्म्य उनके कारण में ही पर्यवसित है। उस कारण का भी पर्यवसान जहाँ है वही कार्यकारणातीत सर्वाधिष्ठान परमतत्त्व श्रीकृष्ण हैं। फिर उनसे भिन्न कौन-सा तत्त्व है जिसका निरूपण किया जाय? अतः सर्वान्तरात्मा श्रीकृष्ण के साथ भेद ही क्या हो सकता है? अतः उनके सन्निधान में निष्कपट और निरावरण होने से ही जीव का परम कल्याण होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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