भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अहो! भगवान का यह खेल कैसा मनोमोहक था! “अस्पन्दन गतिमतां पुलकं तरूणाम्।” उसे देखकर जो गतिमान थे उनमें निस्पन्दता आ जाती थी और वृक्षों की रोमावली खड़ी हो जाती थी। अर्थात चेतन पदार्थों में जड़ता आ जाती थी और जड़ों में चेतन की क्रिया होने लगती थी। अतः भगवान ने बहिर्मुख पुरुषों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये ही अति अद्भुत मनोरम लीला की थी। ऐसा कहा जाता है कि प्राणियों के पतन का जो प्रधान हेतु है वह भगवद्विमुखता ही है; तथा भगवदुन्मुखता ही सर्वानन्द का साधन है।
अर्थात जो पुरुष भगवान से विमुख है, जो नामरूप क्रियात्मक प्रपंच में ही आसक्त है उसे ही भगवान की माया से मोहित होने के कारण भगवद्विस्मृति हुआ करती है। स्वरूपविस्मृति के पश्चात विभ्रम होता है, जो असंग आत्मा में संग का, अकर्ता में कर्तृत्व का और एक में अनेकत्व की भ्रान्ति करा देता है। उस विभ्रम से द्वैतबुद्धि होती है, द्वैतबुद्धि से ही भय होता है। अतः बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि अनन्य बुद्धि से उस पूर्ण परब्रह्म परमात्मा का ही भजन करे। इससे माया इस प्रकार भाग जाती है जैसे क्रुद्ध तपोधनों के सामने से वेश्या। माया से ही स्वरूप की विस्मृति हुआ करती है और भगवदुन्मुख होने पर वह भाग जाती है तब स्वरूपसाक्षात्कार हो ही जाता है और फिर विभ्रम का उच्छेद हो जाने के कारण निर्भयता की प्राप्ति हो जाती है। अतः भगवान ने अज्ञानीरूप प्रजा का उद्धार करने के लिये ही यह मार्ग निकाला था, क्योंकि भगवान की माया बड़ी प्रबल है, उससे वे ही बच सकते हैं जो एकमात्र भगवान का ही आश्रय लेते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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