भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जो प्राणी अत्यन्त निकृष्ट कोटि के हैं उनके ऊपर जो कृपा उसका आश्रय लेकर रमण करने का विचार किया। भगवान पतित पावन हैं, इसी से भावुक भक्त अपने को सर्वसाधनशून्य देखकर भी भगवत्कृपा के भरोसे निश्चिन्त रहते हैं। “हौं पतित, तुम पतितपावन दोउ बानक बने।” अतः यह भगवान की लीला मानो अत्यन्त अयोग्य पुरुषों के ऊपर कृपा करने के ही लिये है; क्योंकि भगवान के जो वात्सल्य, माधुर्य एवं औदार्य आदि गुण हैं उनकी सफलता तो बिना पतितों के हो ही नहीं सकती। वस्तुतः उदारता और दीनवत्सलता ये सब तो इन्हीं अंशों को लेकर होते हैं कि स्वयं परमोत्कृष्ट होकर भी अत्यन निम्नकोटि के पुरुषों के साथ मिलकर उनके साथ पूर्ण आत्मीयता का बर्ताव करें। किन्तु निर्विशेष परब्रह्म या गोलोकवासी भगवान के साथ ऐसे पतितों का सहवास कैसे हो सकता है? वहाँ उन निष्कृटातिनिकृष्ट पुरुषों के आत्मीय होकर भगवान कैसे विहार कर सकते थे? अथवा- “अयोगेषु स्वस्मिन्नयुज्यमानेषु या माया कृपा तामुपाश्रितः।” जिनकी मनोवृत्ति स्वप्न में भी भगवान की ओर नहीं जाती ऐसे अपने में अयुक्त पुरुषों के प्रति जो मायाकृपा उसका आश्रय लेकर भगवान ने रमण करने की इच्छा की; क्योंकि यह लीला अत्यन्त साधनशून्यों की भी अपनी ओर आकर्षित करने वाली है। अतः भगवान ने बहिर्मुख पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये ही यह लीला की थी। निर्विशेष भगवान में तो प्राकृत पृरुषों की वृत्ति पहुँचनी अत्यन्त कठिन है; इसी से भगवान ने यह लोकमनोभिरामा लीला की थी, जिससे विषयी और पशुप्राय जीवों का चित्त भी भगवान की ओर लग जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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