भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
उनका संसर्ग ही तो परम कल्याण है। उसमें लौकिक भावों का आरोप करना अर्थात पारमार्थिक तत्त्व में अपारमार्थिक भावों का निवेश करना माया ही है। अतः ‘योगे सम्बन्धे या माया वंचना सा योगमाया’ ऐसा तात्पर्य समझना चाहिये। अथवा ‘अयोगमाया’ ऐसा पद माने तो ‘अयोगाय असम्बन्धाय या माया वंचना सा अयोगमाया’ अयोग यानी असम्बन्ध के लिये जो माया-वंचना उसी का नाम अयोगमाया है। अर्थात अपने साथ सम्बन्ध न होने देने के लिये जो माया उसका उन्होंने आश्रय लिया! ‘ताः वीक्ष्य’ वे जो पूर्वोक्त प्रकार की गोपांगनाएँ थीं, जो इस प्रकार स्वस्वरूपानुसन्धान में तत्पर थीं उन्हें दयार्द्रदृष्टि से देख वंचना को भूलकर उन्होंने रमण करने के लिये मन किया। अथवा- “युज्यते इति योगा सदासंश्लिष्टरूपा या वृषभानुनन्दिनी तस्यां या माया कृपा तामाश्रित्य रन्तुं मनश्चक्रे”- अपनी स्वस्वरूपभूता जो वृषभानुनन्दिनी उनकी प्रसन्नता के लिये रमण करने को मन किया। अर्थात उन्हें जो रासाभिलाषा हुई उसकी पूर्ति के लिए उन व्रजांगनाओं को देखकर रमण करने की इच्छा की। अथवा ‘न गच्छतीति अगा अगा चासौ मा इति अगमा, अगमायां उपाश्रिवतः यः स भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’ अर्थात जो अचला (नित्यसंगिनी) लक्ष्मीरूपा वृषभानुनन्दिनी हैं उनमें अनुरक्त जो भगवान उन्होंने रमण करने की इच्छा की। क्योंकि यह रासलीला श्रीराधिका जी की ही प्रसन्नता के लिये है। भावुकों का ऐसा मत है कि भगवान के जितने कृत्य हैं वे श्रीवृषभानुनन्दिनी की प्रसन्नता के लिये हैं और श्रीवृषभानुसुता के जितने कृत्य हैं वे श्रीहरि की तुष्टि के लिये हैं। यहाँ जो अन्यान्य गोपांगनाएँ हैं वे सब श्रीराधिकाजी की ही अंशाशभूता हैं। यहाँ जो ‘अपि’ है उसका तात्पर्य यह भी मालूम होता है कि व्रजदेवियों को तो पहले ही से भगवान के साथ रमण की इच्छा थी। इस समय मानो परीक्षित के चित्त में इस बात का सन्ताप था कि अहो! व्रजांगनाओं ने कात्यायनी-अर्चनादि कठोर तपस्या करके भगवान को प्रसन्न किया और भगवान के भी प्रसन्न होकर उन्हें अभीष्ट वर दिया; किन्तु अब, जबकि प्रेमातिशय के कारण भगवत-सम्भोग की प्रतीक्षा में गोपांगनाओं को एक-एक पल युग के समान हो रहा था, भगवान क्यों उपेक्षा कर रहे थे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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