भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस लीला का दूसरा प्रयोजन जीवों का कल्याण है। यहाँ जो अनन्यपूर्विका नायिका हैं उनका जो भगवान के प्रति अतिशय अनुराग है उससे होने वाली लीला आगे चलकर लोगों को ध्येय होगी। यह बात पहले कही जा चुकी है कि इस प्रकार की कामविजय-लीला का चिन्तन करने से लोगों को कामजयरूप फल प्राप्त होगा? भगवान श्रीकृष्ण या गोपियाँ? सो कोई नहीं, बल्कि उन दोनों का जिस प्रेमपाश से बन्धन है वह प्रेमश्रृंखला ही उनकी ध्येय होगी, क्योंकि उसके अधीन तो वे दोनों ही हैं। जिस प्रकार यदि किसी ऊँट या बैल को पकड़ना होता है तो उसकी नकेल या नाथ ही पकड़ते हैं, उसी प्रकार इस प्रेम-बन्धन को पकड़ने से श्रीकृष्ण और गोपियाँ दोनों ही स्वाधीन हो जायँगे। इसके सिवा इस लीला से सर्वसाधारण को यह भी उपदेश मिलेगा कि इस प्रकार के नायक-नायिकाओं में जैसा उत्कट स्नेह होता है वैसा ही उन्हें भी अपने इष्टदेवों के प्रति रखना चाहिये। इन व्रजांगनाओं में जो अन्यपूर्विका हैं उनसे यह उपदेश भी मिलता है कि जिस प्रकार वे लौकिक-वैदिक श्रृंखलाओं का विच्छेद करके भगवत्पराण रहती थीं, उसी प्रकार साधकों को भी सारे व्यवधानों को छोड़कर अपने ध्येय में संलग्न होना चाहिये। साधारण पुरुषों को इससे भगवान की उदारता और करुणा का भी ज्ञान होता है। प्राणियों में सदा ही कोई-न-कोई त्रुटि तो रहा ही करती है। उस समय अपनी हीनता को देखकर अनाश्वास हो जाना स्वाभाविक ही है। जहाँ ऐसा नियम है कि प्राणी वैदिक एवं स्मार्त्त उपासना करके ही भगवान को प्राप्त करने की योग्यता पा सकता है, वहाँ जो सर्वसाधनहीन स्थूलदर्शी लोग हैं उन्हें ऐसी आशा होना कि भगवान हम पर भी उन गोपांगनाओं के समान कृपा करेंगे, बहुत बड़ा आश्वासन है। आगे चलकर कहा है कि वे गोपियाँ जारभाव से भगवान को प्राप्त हुईं, ‘जारबुद्ध्यापि संगताः।’ अहो! जो गोपांगनाएँ वैदिक और स्मार्त्त-श्रृंखलाओं का उल्लंघन करके भगवत्परायण हुईं और जिन भगवान का सर्वथा शुद्ध-भाव से आश्रय लेना चाहिये था उनका ऐसे दूषित भाव से आश्रय लिया, उन गोपांगनाओं का भी भगवान ने कल्याण कर दिया। यह ऐसी ही बात हुई जैसे पूतना ने विषलिप्त स्तनपान कराकर भी परमपद प्राप्त किया। जिन भगवान का सर्वस्व समर्पण करके अर्चन करना चाहिये था उन्हें विषपान कराना महान अपराध था, तो भी विषय के माहात्म्य से उसने सद्गति प्राप्त की। उसी प्रकार यद्यपि कामबुद्धि से भगवान का आश्रय लेना अत्यन्त अनुचित है, क्योंकि यह सोपाधिक प्रेम है- कामवासना की पूर्ति तक ही रहने वाला है और भगवान को सर्वभूतान्तरात्मा होने के कारण निरुपाधिक प्रेम से ही अभ्यर्चित होना चाहिये, तथापि उनका परम हित ही हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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