भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
परन्तु इस बात का निश्चय भी शास्त्राधार पर ही हो सकेगा; अन्यथा साधारण पुरुषों को तो अविचारवश रासक्रीड़ा में व्यभिचार की ही गन्ध आयेगी। परन्तु श्रीमद्भागवत में तो कहा है कि जिन गोपों की स्त्रियाँ रासक्रीड़ा में सम्मिलित हुई थीं उन्होंने भी उन्हें अपने पास ही देखा- ‘मन्यमाना स्वपार्श्वस्थान्स्वान्स्वान्दारान्व्रजौकसः। यदि कहा जाय कि यह उनकी भ्रान्ति थी तो हम कहते हैं कि गोपों को उनके पत्नीत्व की ही भ्रांति क्यों न मानी जाय। यह प्रसंग तो श्रीमद्भागवत में आता ही है कि एक वर्ष के लिये सर्वथा भगवान ही गोपाल और वत्सरूप हो गये थे। सम्भव है, ये व्रजांगनाओं के पति गोपरूप गोविन्द ही हों। अतः सिद्ध हुआ कि यह अनन्यपूर्विका व्रजांगनाओं में ही अन्यपूर्विकात्व की प्रतीति थी, जिस प्रकार कि अनन्यपरा श्रुतियों में ही अन्यपरात्व की प्रतीति होती है। यहाँ जिस तरह प्रपंच-रचना में दो हेतु बतलाये गये हैं-एक तो भगवान की लीला और दूसरा जीवों को कल्याण के साधन प्राप्त कराना, उसी प्रकार इस रासलीला के भी दो ही प्रयोजन थे। प्रथम तो भगवान की यह लीला प्रेमरस के विकास के लिये थी। यहाँ एक ही तत्त्व भगवान श्रीकृष्ण और गोपीरूप से आविर्भूत हुआ है। यह प्रेमलीला थी, इसलिये यहाँ उसे नायक और नायिकारूप में परिणत होने की आवश्यकता थी, क्योंकि प्रेम का मुख्य आलम्बन नायक के लिये नायिका है और नायिका के लिये नायक। साहित्य शास्त्र में श्रृंगार रस सबसे उत्कृष्ट माना गया है। वस्तुतः उसके द्वारा परमानन्द की जैसी स्फुटस्फूर्ति होती है वैसी और किसी रस से नहीं होती। श्रृंगार अथवा प्रेमरस स्वतः निर्विशेष है। जिस समय उसका आलम्बन भगवान होते हैं तो वह परमपवित्र प्रेम माना जाता है और जिस समय उसका आलम्बन अस्थि-मांसमय नायक या नायिका होते हैं तो अत्यन्त अधोगतिमूलक काम कहते हैं। किन्तु यहाँ नायक-नायिका रूप में भी शुद्ध सच्चिदानन्दघन ही हैं। अतः रसवृद्धि के साथ यहाँ निकृष्ट आलम्बनजनित मलिनता की तनिक भी सम्भावना नहीं है। इन नायिकाओं में जो अनन्यपूर्विका थीं उन्हें स्वकीया कहा गया है और जो अन्यपूर्विका थीं उन्हें परकीया। स्वकीया नायिका को नायक का सहवास सुलभ होता है, किन्तु परकीया में स्नेह की अधिकता रहती है। कई प्रकार की लौकिक-वैदिक अड़चनों के कारण वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपने प्रियतम से नहीं मिल सकती, इसलिये उस व्यवधान के समय उसके हृदय में जो विरहाग्नि सुलगती रहती है उससे उसके प्रेम की निरन्तर अभिवृद्धि होती रहती है। इसीलिये कुछ महानुभावों ने स्वकीया नायिकाओं में भी परकीया-भाव माना है; अर्थात स्वकीया होने पर भी उसका प्रेम परकीया नायिकाओं का-सा था। वस्तुतः तो सभी व्रजांगनाएँ स्वकीया ही थीं, क्योंकि उनके परमपति भगवान श्रीकृष्ण ही थे; परन्तु उनमें से कई अन्य पुरुषों के साथ विवाहिता थीं और कई अविवाहिता। अतः स्वकीया-परकीया या ऊढा और अनूढा कहना उचित है। इस प्रकार प्रेमोत्कर्ष के लिये ही भगवान ने यह विलक्षण लीला की थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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