भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 934

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्रीरासलीलारहस्य

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परन्तु इस बात का निश्चय भी शास्त्राधार पर ही हो सकेगा; अन्यथा साधारण पुरुषों को तो अविचारवश रासक्रीड़ा में व्यभिचार की ही गन्ध आयेगी। परन्तु श्रीमद्भागवत में तो कहा है कि जिन गोपों की स्त्रियाँ रासक्रीड़ा में सम्मिलित हुई थीं उन्होंने भी उन्हें अपने पास ही देखा- ‘मन्यमाना स्वपार्श्वस्थान्स्वान्स्वान्दारान्व्रजौकसः। यदि कहा जाय कि यह उनकी भ्रान्ति थी तो हम कहते हैं कि गोपों को उनके पत्नीत्व की ही भ्रांति क्यों न मानी जाय। यह प्रसंग तो श्रीमद्भागवत में आता ही है कि एक वर्ष के लिये सर्वथा भगवान ही गोपाल और वत्सरूप हो गये थे। सम्भव है, ये व्रजांगनाओं के पति गोपरूप गोविन्द ही हों।

अतः सिद्ध हुआ कि यह अनन्यपूर्विका व्रजांगनाओं में ही अन्यपूर्विकात्व की प्रतीति थी, जिस प्रकार कि अनन्यपरा श्रुतियों में ही अन्यपरात्व की प्रतीति होती है। यहाँ जिस तरह प्रपंच-रचना में दो हेतु बतलाये गये हैं-एक तो भगवान की लीला और दूसरा जीवों को कल्याण के साधन प्राप्त कराना, उसी प्रकार इस रासलीला के भी दो ही प्रयोजन थे। प्रथम तो भगवान की यह लीला प्रेमरस के विकास के लिये थी। यहाँ एक ही तत्त्व भगवान श्रीकृष्ण और गोपीरूप से आविर्भूत हुआ है। यह प्रेमलीला थी, इसलिये यहाँ उसे नायक और नायिकारूप में परिणत होने की आवश्यकता थी, क्योंकि प्रेम का मुख्य आलम्बन नायक के लिये नायिका है और नायिका के लिये नायक। साहित्य शास्त्र में श्रृंगार रस सबसे उत्कृष्ट माना गया है।

वस्तुतः उसके द्वारा परमानन्द की जैसी स्फुटस्फूर्ति होती है वैसी और किसी रस से नहीं होती। श्रृंगार अथवा प्रेमरस स्वतः निर्विशेष है। जिस समय उसका आलम्बन भगवान होते हैं तो वह परमपवित्र प्रेम माना जाता है और जिस समय उसका आलम्बन अस्थि-मांसमय नायक या नायिका होते हैं तो अत्यन्त अधोगतिमूलक काम कहते हैं। किन्तु यहाँ नायक-नायिका रूप में भी शुद्ध सच्चिदानन्दघन ही हैं। अतः रसवृद्धि के साथ यहाँ निकृष्ट आलम्बनजनित मलिनता की तनिक भी सम्भावना नहीं है।

इन नायिकाओं में जो अनन्यपूर्विका थीं उन्हें स्वकीया कहा गया है और जो अन्यपूर्विका थीं उन्हें परकीया। स्वकीया नायिका को नायक का सहवास सुलभ होता है, किन्तु परकीया में स्नेह की अधिकता रहती है। कई प्रकार की लौकिक-वैदिक अड़चनों के कारण वह स्वतन्त्रतापूर्वक अपने प्रियतम से नहीं मिल सकती, इसलिये उस व्यवधान के समय उसके हृदय में जो विरहाग्नि सुलगती रहती है उससे उसके प्रेम की निरन्तर अभिवृद्धि होती रहती है। इसीलिये कुछ महानुभावों ने स्वकीया नायिकाओं में भी परकीया-भाव माना है; अर्थात स्वकीया होने पर भी उसका प्रेम परकीया नायिकाओं का-सा था। वस्तुतः तो सभी व्रजांगनाएँ स्वकीया ही थीं, क्योंकि उनके परमपति भगवान श्रीकृष्ण ही थे; परन्तु उनमें से कई अन्य पुरुषों के साथ विवाहिता थीं और कई अविवाहिता। अतः स्वकीया-परकीया या ऊढा और अनूढा कहना उचित है। इस प्रकार प्रेमोत्कर्ष के लिये ही भगवान ने यह विलक्षण लीला की थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
2. नामरूप की उपयोगिता 3
3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
16. माँ के चरणों में 194
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18. गणपति तत्त्व 235
19. अवतारमीमांसा 247
20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
22. भारत ही में अवतार क्यों? 281
23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
28. भगवच्छरणागति से ही गति 367
29. भगवान का अवलम्बन अनिवार्य 372
30. प्रेमतत्त्व 375
31. भगवान और प्रेम 384
32. भगवत्कथामृत 390
33. प्रभुकृपा 396
34. निर्बल का बल 401
35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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