भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह सब भगवान की लीला ही है। ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’। एक का अनेकत्व, निष्प्रपंच का प्रपंचरूपत्व उनका खेल ही है। परन्तु यह खेल निरर्थक नहीं है। प्रत्येक लीला, करने वाले के तो विनोदार्थ ही होती है; अतः यह भगवत्लीला भी भगवान के तो विनोदार्थ ही है। परन्तु अन्य जीवों के लिये यह उनके कल्याण का साधन है। वे अनेकविध शब्दों से अपने ही विभिन्न रूपों का बोध करते हैं। सब जीवों का एक-सा अधिकार नहीं है। कोई सकाम कर्म के अधिकारी हैं, कोई निष्काम कर्म करने योग्य हैं, किन्हीं को भगवान के सगुण रूप की ही उपासना करनी चाहिये, कोई निर्गुणोपासना में प्रवृत्त हो सकते हैं और कोई अभेदचिन्तन के अधिकारी हैं। अपने-अपने अधिकारानुसार ये सब भगवान का ही भजन करने वाले हैं। सब लोगों की गति निष्प्रपंच ब्रह्म में ही नहीं हो सकती। अतः भगवत्साक्षात्कार के लिये क्रमशः इन सभी सोपानों का अतिक्रमण करना होता है। यद्यपि यह बात अपने अधीन ही है कि हम कर्म न करें, परन्तु ऐसे कितने आदमी हैं जो बिना कर्म किये रह सकते हों? यही बात मन के विषय में भी है। यद्यपि सभी चाहते हैं कि मन निस्पन्द हो जाय और उसकी निस्पन्दता है भी अपने ही अधीन, तथापि इसमें सफलता पाने वाले कितने लोग हैं? अतः सब जीवों के यथायोग्य साधन की व्यवस्था करने के लिये ही भगवान प्रपंचाकार में परिणत हो जाते हैं। यही उनकी प्राप्ति का क्रम है। इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते जब तक जीव निष्प्रपंच ब्रह्म में परिनिष्ठित नहीं होता तब तक उसे कृतार्थता नहीं हो सकती। यहाँ यह प्रश्न होता है कि भगवान ने प्रपंच की रचना की ही क्यों? इस पर हमें यही कहना है कि आरोप होने पर ही उसके अधिष्ठान का अनुसन्धान किया जाता है। अधिष्ठान है, इसलिये आरोप की कल्पना नहीं की जाती, जैसे कि कहा है- “सत्यारोपे निमित्तानुसरणं नतु निमित्तमस्तीत्यारोपः।” जिस प्रकार यदि मृत्तिका है तो यह नहीं कह सकते कि घट बनना ही चाहियेः हाँ, घड़े को देखकर उसकी कारणभूता मृत्तिका का अनुमान अवश्य किया जाता है। कार्य तो कारण का व्यभिचारी हो सकता है, किन्तु कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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