भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
किन्तु सभी गोपांगनाएँ एक-सी अधिकारिणी नहीं थीं। उनमें जो भगवान की आह्लादिनी शक्तिरूपा श्रीवृषभानुनन्दिनी और उनकी सहचरी ललिता-विशाखा आदि हैं, वे तो नित्य-सिद्धा हैं। वे तो भगवान की नित्य सहचरी हैं। जिस प्रकार अमृतमय समुद्र में माधुर्य होता है, उसी प्रकार भगवान के साथ उनका अभेद ही है। यह बात श्रुतिरूपा मुनिचरी और देवकन्या आदि अन्य गोपांगनाओं के विषय में समझनी चाहिये, जो कि साधनसिद्धा थीं। वे ही इस प्रकार भगवद्विप्रयोगरूप अग्नि से रसमय शरीर का सम्पादन करती थीं। नित्यसिद्धा तो केवल लोकसंग्रह के लिेय ही ऐसा करती थीं। उन्हें स्वयं इसकी कोई अपेक्षा नहीं थी। उनमें भी कोई-कोई गोपांगनाएँ ऐसी थीं, जो साल भर में सिद्धा नहीं हुईं; उन्हीं के विषय में ऐसा कहा गया है-
जिस समय भगवान ने अपनी मधुमय वेणु का वादन किया, उस समय उस वेणुनाद रूप उद्दीपन-विभाव द्वारा जब रससिन्धु भगवान कृष्ण उन व्रजांगनाओं के अन्तःकरणों में प्रस्फुरित हुए तो उनका मनोमल सर्वथा नष्ट हो गया और उन्हें भगवान के वियोग में एक-एक पल असह्य हो गया। किन्तु उस समय उनके पतियों ने उन्हें घर में बन्द कर दिया था। इससे उनके हृदय में जो सन्ताप हुआ, उसे देखकर संसार के सारे अशुभ कांप उठे; उन सबने मिलकर भी किसी को उतना कष्ट पहुँचाने में अपने को असमर्थ पाया। किन्तु साथ ही उन्होंने जो ध्यानयोग द्वारा भगवान का एक क्षण के लिये आश्लेष किया उससे उनके हृदय में जो परमानन्द का उद्रेक हुआ उसे देखकर भी अनन्त ब्रह्माण्डान्तर्गत प्राणियों के समस्त पुण्यार्जित सुख क्षीण हो गये। उन्होंने किसी को इतना सुख पहुँचाने में अपने को असमर्थ पाया। इस प्रकार जिन गोपांगनाओं के अप्राकृत रसमय शरीर की पुष्टि अभी नहीं हुई थी, वह अब हो गयी। भगवान के विप्रयोगजनित सन्ताप से उनका गुणमय-शरीर दग्ध हो गया, इसी से कहा है- ‘जहुर्गुणमयं देहम्’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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